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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 18.pdf/७३

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२९. बहुमतका कानून

होमरूल लीग तथा नेशनल यूनियन द्वारा बम्बईमें आयोजित पंजाब- सम्बन्धी सभामें मैंने जो भाषण दिया था उसका विवरण पढ़नेपर तथा उसमें यह देखनेके पश्चात् कि मैंने उस सभामें जनरल डायरपर मुकदमा चलाने तथा सर माइकेल ओ'डायपर महाभियोग लगानेकी माँग करते हुए एक प्रस्ताव पेश किया था, श्रीमती बेसेंटने[]पूछा है कि जिस प्रस्ताव के मुद्दोंको मैं ठीक न मानता होऊँ उसे मैंने क्योंकर प्रस्तुत किया। मेरे उस भाषणके कारण श्री शास्त्रीको[]भी क्षोभ हुआ है। मैंने अभीतक अपने उस भाषणकी कोई रिपोर्ट नहीं पढ़ी है। इसलिए मैं यह कह सकनेमें असमर्थ हूँ कि मेरे उस भाषणको ठीक-ठीक वितरित किया गया है या नहीं। मैंने भाषण गुजराती में दिया था और सम्भव है कि संवाददातासे अनुवाद करनेमें गलती हो गई हो। मेरे भाषणकी प्रकाशित रिपोर्टोंके बावजूद, मैं अपनी स्थितिको स्वतन्त्र रूपसे समझानेका प्रयत्न करूँगा; और सो भी खुशीसे क्योंकि मैं यह मानता हूँ कि इन दो बड़े नेताओं द्वारा उठाया गया सैद्धान्तिक प्रश्न बहुत महत्त्वपूर्ण है।

मुझपर प्रायः यह दोष लगाया जाता है कि मेरा स्वभाव अपनी बातपर अड़े रहनेका है। मुझसे कहा गया है कि मैं बहुमतके निर्णयके आगे भी नहीं झुकता। मेरे सिर यह दोष भी मढ़ा गया है कि मेरा रवैया निरंकुशतावादी है। अब पंजाब-सम्बन्धी उस सभामें ही मुझसे आग्रह किया गया कि मैं वह प्रस्ताव पेश करूँ हालाँकि मुझे यह ठीक नहीं लगता था। मैंने उसे प्रस्तुत करना स्वीकार तो कर लिया परन्तु मैंने उस प्रस्तावमें कही गई बातोंके विरोध में मत प्रकट करनेका अपना अधिकार सुरक्षित रखा। और मैंने उसका विरोध किया भी। मैं इस आरोपको कभी स्वीकार नहीं कर सका हूँ कि मैं हठी या निरंकुश हूँ। बल्कि मुझे इस बातका गर्व है कि गैर-महत्त्वपूर्ण प्रश्नोंपर मेरा स्वभाव दूसरोंकी बात स्वीकार कर लेनेका ही है। निरंकुशतासे मुझे घृणा है। मैं अपनी स्वतन्त्रता और स्वच्छन्दताको एक मूल्यवान वस्तु मानता हूँ और दूसरोंकी स्वतन्त्रता और स्वच्छन्दताका उतना ही आदर करता हूँ। यदि किसी पुरुष या स्त्रीको मेरा तर्क नहीं भाता तो मैं नहीं चाहता कि वह मेरे कहनेके अनुसार करें। मैं लकीरका फकीर नहीं हूँ; यदि मेरी बुद्धिको ठीक लगे तो मैं अपने प्राचीनतम शास्त्रोंकी बातको माननेसे इनकार कर देता हूँ,——उसे ब्रह्मवाक्य मानकर स्वीकार नहीं करता। तथापि अनुभवसे मैंने यह सीखा है कि यदि मैं समाज में रहना चाहता हूँ और साथ ही अपनी स्वतन्त्रता भी बनाये रखना चाहता हूँ तो मुझे अपनी स्वतन्त्रताका

  1. एनी बेसेंट (१८४७-१९३३); थियॉर्सोफिकल सोसाइटीकी अध्यक्षा; बनारस में सेंट्रल हिन्दू कॉलेजकी संस्थापिका; १९१७ के कांग्रेस अधिवेशनकी अध्यक्ष।
  2. वी॰ एस॰ श्रीनिवास शास्त्री (१८६९-१९४६); विद्वान् राजनीतिज्ञ; भारत सेवक समाज (सवेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी) के अध्यक्ष, १९१५-१९२७ ।