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३०. जनरल डायर

सैनिक परिषद्ने जनरल डायरको निर्णयकी भूलका दोषी पाया है और सरकारको सलाह दी है कि उन्हें भविष्य में कोई सरकारी पद न दिया जाये। श्री मॉण्टेग्युने[१]जनरल डायरके आचरणकी बड़ी बेमुरौवतीसे आलोचना की है। फिर भी, चाहे जिस कारणसे हो, मैं किसी भी तरह यह नहीं मान पा रहा हूँ कि सबसे बड़े अपराधी जनरल डायर ही हैं। उन्होंने जो क्रूरता बरती, वह स्पष्ट है। सैनिक परिषद् के सामने अपने बचावमें उन्होंने जो-कुछ कहा, उसकी हर पंक्तिसे उनकी वह घोर कायरता प्रकट होती है जो किसी भी सैनिकके लिए सर्वथा अशोभनीय है। उन्होंने ऐसे पुरुषों और बालकोंकी एक निहत्थी भीड़को "विद्रोहियोंकी फौज" कहा, जिनमें से अधिकांश छुट्टियाँ मनानेके लिए एकत्र हुए थे। लोगोंको एक अहाते में घेरकर उन्होंने कुत्ते-बिल्लियोंकी तरह उन्हें अपनी गोलियोंका शिकार बनाया, और उनका खयाल है, उन्होंने इस तरह पंजाब के त्राताका काम किया। ऐसा आदमी तो सिपाही माने जाने लायक भी नहीं है। उनके काममें कहीं कोई बहादुरी नहीं थी। उन्होंने आगे बढ़कर कोई खतरा उठानेकी हिम्मत नहीं दिखाई। बिना कोई चेतावनी दिये उन्होंने ऐसे लोगोंपर गोलियाँ चलाईं जिन्होंने उनका तनिक भी प्रतिरोध नहीं किया था। इसे "निर्णयकी भूल" नहीं कहते। यह तो एक काल्पनिक खतरेसे सामना पड़ जानेपर किसीकी निर्णयबुद्धिके जड़ हो जानेका उदाहरण है। यह हृदयहीनताका प्रमाण है, ऐसी अक्षमताका सबूत है जिसे अपराध ही माना जायेगा। लेकिन मेरा निश्चित मत है कि जनरल डायरपर जितना क्रोध उतारा गया है, दरअसल उसमें से अधिकांशके पात्र और लोग हैं। इसमें सन्देह नहीं कि गोलीबारी "दिल दहलानेवाली" थी और निर्दोष लोगोंकी जान लेना एक जघन्य कृत्य था। लेकिन उसके बाद लोगोंको जिस तरह तिल-तिल कर यन्त्रणा दी गई, उन्हें जिस तरह अपमानित किया गया और पुंसत्वहीन बनानेकी कोशिश की गई, वह जनरल डायरकी करतूतोंसे भी अधिक काली, अधिक दुराशयपूर्ण, अधिक विद्वेष-प्रेरित तथा आत्माके लिए अधिक घातक थी। और जनरल डायर जलियाँवाला बागके हत्याकाण्डके लिए जितनी निन्दाके पात्र हैं उससे भी अधिक निन्दाके पात्र वे लोग हैं जिन्होंने ये जवन्य कृत्य किये। जनरल डायरने तो कुछ लोगोंकी जान ली, लेकिन इन सबने तो एक राष्ट्रकी आत्माको ही कुचलकर रख देनेकी कोशिश की। कर्नल फ़्रैंक जॉन्सनकी [२]चर्चा कोई नहीं करता हालाँकि वह कहीं अधिक बड़ा अपराधी था? उसने निर्दोष लाहौरपर आतंकका साम्राज्य स्थापित कर दिया और अपने

१८-४
  1. ई॰ एस॰ मॉण्टेग्यु (१८७९-१९२४); भारत मन्त्री, १९१७-२२; और मॉण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार योजना के सह-प्रणेता।
  2. अप्रैल-मई १९१९ में लाहौर के मार्शल लॉ क्षेत्रकी कमान इन्हींके हाथोंमें थी; देखिए खण्ड १७, पृष्ठ १२८-३२२ ।