३६. कौंसिलोंका बहिष्कार
धीरे-धीरे असहकारका रूप निखरता आ रहा है। इस समय राष्ट्रके सम्मुख जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य है वह है कौंसिलोंका बहिष्कार करना। मुझे उम्मीद है कि जनता अडिग रहकर अपने इस कार्यको पूरा करेगी।
जिस सरकारकी नीयत खराब है, जिसने जान-बूझकर न्याय नहीं किया जिसके हृदय में जनता के प्रति तिरस्कार-भाव होनेका हमें विश्वास हो गया है, उसके द्वारा विरचित योजनासे हमें क्या मिलनेवाला है?
इस समय मुझे समस्त राज्य-तन्त्र विषके समान दिखाई दे रहा है। नीमसे मीठे फलकी आशा ही कैसे की जा सकती है? मुख्य प्रश्न यह है : क्या हम विधान परिषदोंमें भाग लेकर निरंतर प्रतिरोध करें अथवा इन परिषदोंमें बिलकुल ही भाग न लें? विघ्न-बाधाओंसे कोई योद्धा पराजित नहीं होता। अंग्रेज कुशल योद्धा हैं। विधान परिषदोंमें जाकर सरकारको हैरान करनेका अर्थ है, लम्बे-तीखे भाषण देना, गालियाँ तक बकना तथा जब वोट लिये जायें तब उसके पक्षमें अपना वोट न देना। जो यह मानते हैं कि ऐसे उपायोंसे सरकार थक जायेगी, उन्होंने प्रशासन-व्यवस्थाका कुछ अध्ययन ही नहीं किया है। हमारे द्वारा इस तरह विघ्न डालनेसे वह छोटीछोटी चीजें तो देगी, लेकिन सार-तत्त्व कभी नहीं देगी।
हमने इस तरह आजतक जो विजय प्राप्त की है उसमें कदाचित् ही कोई महत्त्वपूर्ण हो। भारतका धन बदस्तूर बहता चला जाता है। सेनाका भय तनिक भी कम नहीं हुआ है। गोरे कालेके बीच भेद बराबर बना हुआ है। प्रपंच कम होनेके बदले बढ़ गया है। राजनीतिमें तिल-भर सुधार नहीं हुआ है। कौन कहेगा कि [सरकार और जनता] दोनोंके बीचका सम्बन्ध दिन-प्रतिदिन निर्मल होता जा रहा है।
यदि थोड़ेसे भारतीय न्यायाधीश बना दिये गये, कुछ लोगोंको कार्यकारिणी परिषद्की नौकरी मिल गई, कुछ भारतीय विधान परिषदोंमें चले गये, एक भारतीयको लॉर्ड बना दिया गया तो क्या इससे हमारा कल्याण हो गया? मैं तो इन सब बातोंको प्रलोभन मानता हूँ। यह हमें निद्रावस्था में रखनेके लिए अफीमकी गोली है। जबतक न्याय नहीं मिलता तबतक सरकारकी ओरसे मिला हुआ सम्मान वस्तुतः अपमान है, इतनी सीधी-सी बात हम क्यों नहीं समझ पाते?
मैं तो सारे हिन्दुस्तानकी ओरसे जबरदस्त आशा लगाये बैठा हूँ; लेकिन मेरे मत में मुझे गुजरात से सर्वाधिक आशा करनेका विशेष अधिकार है। मैं उम्मीद रखूँगा कि गुजरात इस सम्बन्धमें अग्रणी रहेगा।
गुजरात की जनता सतर्क मानी जाती है। उसे बहुत ठीक हिसाब करना आता है। मैंने जो आँकड़े जनताके सम्मुख रखे हैं वे तो एकदम स्पष्ट हैं। कीचड़में पाँव रखें और छीटें न उड़ें, यह कैसे सम्भव हो सकता है? जबतक प्रशासन अन्याय बुद्धिसे भरा हुआ है तबतक विधान परिषद्को में कीचड़ ही मानूँगा।