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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


हैरान और परेशान करनेकी नीति से आयरलैण्डकी जनता कुछ प्राप्त नहीं कर सकी; [हालाँकि] उसके पास पार्नेल जैसा महान् योद्धा था। अब उस जनताने हारकर हिंसाको अख्तियार कर लिया है। इसे भी मैं तो भूल ही मानता हूँ। हैरान करने से कुछ हासिल नहीं होता, इसके उदाहरणस्वरूप मैंने आयरलैण्डका दृष्टान्त आपके सामने रखा है। दक्षिण आफ्रिकामें जनरल बोथाके सम्मुख दो मार्ग थे : धारासभा में जाकर न्यायकी याचना करना अथवा विधान सभाका त्याग कर देना। उन्होंने विधान सभाको छोड़ना पसन्द किया और उनकी विजय हुई। उन्हें अपना मनपसन्द संविधान मिला और वे स्वतन्त्र प्रजाके प्रधान नियुक्त हुए।

विधान परिषदोंका त्याग करनेसे राष्ट्र उन्नत होगा। जनताको शुद्ध शिक्षा मिलेगी तथा प्रशासन चलानेका बोझा सिर्फ सरकारपर ही आ पड़ेगा। मेरी दृढ़ मान्यता है कि यदि जनताका शिक्षित भाग भी अपना कर्त्तव्य समझ सरकारकी ओरसे मिलनेवाले स्पष्ट प्रलोभनोंका त्याग कर दे तो सरकार पल-भर प्रशासन-प्रबन्ध नहीं चला पायेगी। शासन-प्रबन्ध केवल जनताकी सर्वसम्मति से चलता है। जब जनता स्पष्ट रूपसे उसका विरोध करने लगे तब वह कदापि नहीं चल सकता। सरकार मुख्यतः जनताको भयभीत करके नहीं वरन् भरमाकर शासन-प्रबन्ध चलाती है। डरका उपयोग भी अवश्य करती है लेकिन वह तो अन्तिम अस्त्र है। न्याय भी किया जाता है, लेकिन उतना ही जितना राज्य चलानके लिए जरूरी है। न्याय करना उत्तम 'पालिसी' है इसलिए कुछ हदतक न्याय मिलता है, जबकि हम तो यह माँगते हैं कि पृथ्वी रसातलको भले ही चली जाये न्याय तो होना ही चाहिए।

और हमारे सम्मुख अंग्रेज अधिकारियोंका हृदय-परिवर्तन करनेकी बात इसी तत्त्वका समावेश करवानेके लिए आती है। हृदय-परिवर्तनके लिए हमें यह साबित करना चाहिए कि हम उनके समकक्ष हैं। अपने शरीरबल अथवा नैतिक बलके आधारपर ही यह समता प्राप्त की जा सकती है। शरीरबलसे प्राप्त की गई समता अपेक्षाकृत हीन स्तरकी समता है, यह पशुनीति है; और [किसी भी] हिन्दूके लिए त्याज्य है। सहस्रों वर्षोंसे हमें जो शिक्षा प्राप्त होती रही है वह विभिन्न प्रकारकी है। मेरी दृढ़ मान्यता है कि नैतिक बलसे अंग्रेजोंको वशमें किया जा सकता है। मैं उनके द्वारा नियुक्त अधिकारियोंके सम्बन्धमें अनेक कटु बातें लिखता हूँ तथापि मेरी मान्यता है कि ब्रिटिश जनता नैतिक बलसे जितना प्रभावित होती है उतनी यूरोपमें और कहींकी जनता नहीं होती। और विधान परिषदोंका ज्ञानपूर्वक त्याग करना नैतिक बलकी एक छोटी-सी निशानी है। यह त्याग आसानी से किया जा सकता है लेकिन यह प्रभावशाली तभी हो सकता है जब जनताके प्रतिनिधि होने योग्य पुरुष ही यह त्याग करें।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, १८-७-१९२०