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३७. स्त्रियोंका कर्त्तव्य

पंजाबमें जो अत्याचार हुए हैं उनके सम्बन्धमें विख्यात भद्र महिला जाईजी जहांगीर पेटिटकी अध्यक्षता में बम्बईकी स्त्रियोंने अपने विचार व्यक्त किये हैं। इससे दो उद्देश्योंकी पूर्ति हुई है। एक तो उन्होंने हिन्दुस्तानके दुःखमें भाग लिया और वह दुःख क्या है, उसे समझा। ऐसे अत्याचारोंके सम्बन्धमें स्त्रियाँ उदासीन नहीं रह सकतीं। जहाँ स्त्रियाँ अपना स्त्रीत्व तथा पुरुष अपना पौरुष खो बैठें, यदि ऐसा अवसर उपस्थित हो जाये तो वहाँ स्त्रियाँ मौन नहीं रह सकतीं। पंजाबमें केवल पुरुषोंका ही अपमान नहीं हुआ, स्त्रियोंका भी हुआ है। मनियाँवाला गाँवमें स्त्रियोंका अपमान करनेमें उद्धत अधिकारी श्री बाँसवर्थ स्मिथने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। इसलिए स्त्रियों द्वारा बम्बई में सभा आयोजित करना अपना कर्त्तव्य निभानेसे अधिक कुछ नहीं है। मुझे उम्मीद है कि गुजरात के मुख्य नगरोंमें भी सभाएँ आयोजित करके स्त्रियाँ प्रस्ताव पास करेंगी।

स्त्रियाँ स्वयंको अबला मानकर ऐसे कार्योंके उत्तरदायित्वसे मुक्त नहीं हो सकती हैं। अबला विशेषण आत्माके सम्बन्धमें कदापि लागू नहीं हो सकता। निर्बलता तो शरीरके बारेमें कही जा सकती है। एक बालिका जिसकी आत्मा उज्ज्वल है, जिसे आत्माकी प्रतीति हो गई है, वह बालिका साढ़े छः फुट लम्बे उद्धत अंग्रेजका सामना करके उसे परास्त कर सकती है। जिस स्त्रीको अपने अस्तित्वका भान हो गया है उसका स्त्रीत्व उसके आत्मबलसे सुशोभित है। अपने शरीरकी दुर्बलताको स्वीकार करके जो स्त्री मनसे भी दुर्बल बन जाती है वह अपने स्त्रीत्वको सुशोभित नहीं कर सकती। हमारे शास्त्र हमें बताते हैं कि सीता, द्रौपदी आदि स्त्रियोंने अपने तेजसे दुष्टोंको भयभीत कर दिया था। जैसे हाथीका शरीरबल मनुष्यके बुद्धिबलके आगे कुछ नहीं कर पाता वैसे ही मनुष्य अर्थात् स्त्री-पुरुष दोनोंके आत्मबलके आगे मनुष्यका बुद्धिबल तथा शरीरबल तृणवत् है।

इसलिये मैं चाहता हूँ कि हिन्दुस्तानकी स्त्रियाँ अपनेको अबला मानकर अपने राष्ट्रकी रक्षा करनेके अधिकारको न तजें। जिस स्त्री-जातिने हनुमान आदि वीरोंको पैदा किया, उसे अबला कहना निरा अज्ञान है। हो सकता है, स्त्रीको अबला कहने में अभिप्राय पुरुषको स्त्रीके प्रति उसके कर्त्तव्यकी प्रतीति करवाना रहा हो। अर्थात् इसका यह अभिप्राय रहा हो कि शरीरसे बलवान होने के कारण उसे अपनी राक्षसोंजैसी उद्धत वृत्तिसे अबला स्त्रीको सतानेका अधिकार नहीं है बल्कि उसका कार्य तो स्त्रीकी रक्षा करते हुए ऐसे साधनोंको उसके हाथमें देना है जिससे उसकी आत्माका विकास हो।

यह युग केवल शरीर-बलका है—ऐसे भ्रममें पड़े रहकर हम यह मानते हैं कि हम हिन्दुस्तानके दीन और दुःखी लोग क्या कर सकते हैं, और ऐसा सोचकर