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४४. भाषण : गूजरखानमें[१]

२० जुलाई, १९२०

महात्मा गांधी जोरको हर्षध्वनिके बीच उठे; खिलाफतके मामलेमें हिन्दुओं, मुसलमानों और सिखोंकी एकताकी जरूरत समझाते हुए उन्होंने कहा कि गैर-मुसलमानोंके पवित्र स्थानोंके उद्धारका यही एक रास्ता है। इस ध्येयकी पूर्तिके लिए त्याग किये बिना काम न चलेगा। कच्चा गढ़ीकी[२]घटना इसका उदाहरण है। आगे चलकर गांधीजीने श्रोताओंसे कहा कि आप लोग अंग्रेजोंके प्रति किसी प्रकारकी हिंसाका प्रयोग न करें। सफलताका मार्ग यह नहीं है और न इस ढंगसे सरकारका विरोध करनेमें आप समर्थ ही हैं। हमारा हथियार तो एक ही है——हिन्दू-मुस्लिम एकता। यदि इन दो जातियोंके बीच सच्ची एकता हो और संकल्पकी दृढ़ता हो तो हमें सरकारको सूचित कर देना चाहिए कि जबतक खिलाफतका प्रश्न इस तरह हल नहीं किया जाता जिससे मुसलमानोंको सन्तोष हो जाये तबतक हम लोग सरकारसे सहयोग नहीं करेंगे। जैसा कि मैं घोषित कर चुका हूँ पहली अगस्तका दिन व्रत और हड़ताल के दिनके रूपमें मनाया जाना चाहिए और मस्जिदों और मन्दिरोंमें प्रार्थना की जानी चाहिए। वक्ताने मुसलमानोंके साथ उस समयतक हमदर्दी दिखानेके अपने निश्चयको प्रकट किया जबतक खिलाफतके प्रश्नका निर्णय उनके अनुकूल नहीं हो जाता। उन्होंने कहा कि देखा गया है कि मुसलमान लोग यदाकदा क्रोधके वशीभूत हो जाते हैं और हाथ में तलवार उठा लेते हैं। इसकी इस अवसरपर आवश्यकता नहीं है और इससे बजाय लाभके नुकसान अधिक पहुँच सकता है। इसके बाद वक्ताने सरकार के साथ असहयोगपर अपने विचार प्रकट किये। उन्होंने कहा, पहली अगस्तको असहयोग आरम्भ हो जायेगा। पहली अगस्तको सरकारसे स्पष्ट रूपसे यह कह देना चाहिए कि चूँकि खिलाफत के प्रश्नका निर्णय उनके पक्षमें नहीं किया गया है इसलिए भविष्यमें हम बफादार बने रहने को तैयार नहीं हैं। खिताब तथा अवैतनिक पद छोड़ दिये जायें। वकीलोंको वकालत छोड़ देनी चाहिए। क्योंकि इस सरकारकी कचहरियोंमें वकालत करनेकी अपेक्षा शरीर-श्रमपर बसर करना कहीं अच्छा है। सरकारी खानसामाओं और बाबर्चियोंको भी अपनी नौकरियाँ छोड़ देनी चाहिए क्योंकि जो अत्याचारियोंकी नौकरी करता है वह उनके द्वारा किये जानेवाले अत्याचारोंमें भागीदार बनता है। कौंसिलोंका भी बहिष्कार किया जाना चाहिए। यदि इससे काम न चला तो मैं सैनिकोंके पास जाऊँगा और उनसे कहूँगा कि आप लोगोंको ऐसी सरकारकी नौकरी नहीं करनी

  1. म्युनिसिपल गार्डन्समें आयोजित सार्वजनिक सभामें।
  2. देखिए "हिजरत और उसका अर्थ", २१-७-१९२० ।