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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

चाहिए। अन्तमें मैं ईश्वरसे प्रार्थना करता हूँ कि वह आपको इतनी शक्ति दे कि आप देशकी किश्तीको आनेवाले तूफानके बीचसे निकाल कर ले जा सकें।

[अंग्रेजी से]
सर्चलाइट, १०-१२-१९२०
 

५५. टिप्पणियाँ

गलत रास्तेपर

लॉर्ड रोनाल्डशेने[१]पिछले दिनों इंडियन होमरूलपर मेरी वह पुस्तिका पढ़ी है जो ‘हिन्द स्वराज्य’का[२] अनुवाद है। लॉर्ड महोदयने अपने किसी भाषणमें यह कहा कि यदि स्वराज्यका वही अर्थ है जो मैंने अपनी पुस्तिकामें लिखा है तो बंगालका उससे कुछ वास्ता नहीं हो सकता। मुझे खेद है कि कांग्रेसके प्रस्ताव से सम्बन्धित स्वराज्यका अर्थ वह स्वराज्य नहीं है जो मेरी पुस्तिकामें वर्णित है; कांग्रेसके अनुसार स्वराज्यका मतलब वह स्वराज्य है जो भारतकी जनता चाहती है, वह नहीं जिसे देनेपर ब्रिटिश सरकार शायद राजी हो जाये। मैं समझता हूँ कि स्वराज्यमें जनताकी निर्वाचित संसद् होगी जिसे वित्त, पुलिस, फौज, नौसेना, अदालतों और शिक्षा-संस्थाओंपर पूर्ण अधिकार होगा।

अलवत्ता यह तो मैं स्वीकार करता हूँ कि यदि भारत सहयोग दे तो मैं एक सालमें जिस स्वराज्यको पानेकी आशा करता हूँ वह ऐसा स्वराज्य होगा जिसमें खिलाफत और पंजाबकी गलतियोंकी पुनरावृत्ति असम्भव हो जायेगी और उसमें राष्ट्रको स्थाह-सफेद, चाहे जो करनेकी सामर्थ्य होगी; ‘अच्छा’ होगा तो किसी गैरजिम्मेदार, उद्दण्ड और गई-बीती नौकरशाही के निर्देशपर नहीं। उस स्वराज्यमें राष्ट्रको ऐसी विदेशी वस्तुओंपर, जो भारत में बनाई जा सकती हैं, भारी निरोधात्मक कर लगानेका अधिकार होगा और उसे अधिकार होगा कि वह आसपासके या दूरके राष्ट्रोंको गुलाम बनानेके लिए भारतके बाहर एक भी सिपाही भेजनेसे इनकार कर दे। में जिस स्वराज्यका सपना देखता हूँ वह तभी सम्भव होगा जब राष्ट्रको अपनी मर्जीसे अच्छा या बुरा जो चाहे सो करनेका अधिकार होगा।

मैंने उस पुस्तिकामें जो कुछ कहा है उसे मैं अब भी मानता हूँ और पाठकोंको उसे पढ़नेकी राय देता हूँ। सबसे सच्चा स्वराज्य तो अपनेपर शासन करना है। वह मोक्ष या निर्वाणका पर्यायवाची है, और मैं अपने इस मतको बदलनेका कोई कारण नहीं पाता कि डाक्टर, वकील और रेलवे कोई मदद नहीं करते वरन् जो पानेकी चेष्टा करने योग्य है बहुधा उसे पानेमें बाधक होते हैं। परन्तु में जानता हूँ कि आसुरी कामोंसे सम्पर्क रखकर जैसा कि सरकार कर रही है, ऐसी स्वतन्त्रताके प्रयत्नों-

  1. १८४४-१९२९; राजनयिक और लेखक; बंगालके गवर्नर, १९१७-२२।
  2. गांधीजीने मूल गुजरातीमें १९०९ में लिखी थी। देखिए खण्ड १०, पृ४. ६ से ६९।