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५७.वर्ण-व्यवस्था

अपनी दक्षिण-यात्राके[१] दौरान वर्ण-व्यवस्थाके बारेमें मैंने जो विचार प्रकट किये थे, उनके सम्बन्धमें मुझे क्रोध से भरे हुए बहुत-से पत्र मिले हैं। उन पत्रोंको में यहाँ नहीं छाप रहा हूँ, क्योंकि उनमें सिवा गालियोंके और कुछ नहीं है, और जिनमें गालियाँ नहीं हैं उनमें भी कोई सारकी बात नहीं है। मैं सदा ‘यंग इंडिया’ के विचारोंसे मतभेद रखनेवालोंके विचार इस पत्रके स्तम्भोंमें छापते रहना चाहता हूँ किन्तु लेखकोंको चाहिए कि वे अपने विचार संक्षिप्त और रोचक ढंगसे प्रस्तुत करें। तीखी भाषा कोई तर्क नहीं है। मुझे ये बातें इसलिए कहनी पड़ती हैं कि कमसे-कम दो लेखकोंके पत्र, अगर वे बहुत लम्बे और अभिव्यक्तिकी दृष्टि से अस्पष्ट न होते, तो प्रकाशित किये जा सकते थे। तथापि उनके द्वारा उठाये गये मुद्दे ध्यान देने योग्य हैं और उनका उत्तर देना जरूरी है। उनका कहना है कि वर्ण-व्यवस्था कायम रखने से हिन्दुस्तानका सर्वनाश हो जायेगा; और जात-पाँत के कारण ही हिन्दुस्तान गुलाम हुआ है। मेरी नजरमें हमारी आजकी गिरी हुई हालतकी जड़में हमारी जातपाँतका भेद नहीं है। हमारे गलेमें गुलामीका तौक इसलिए पड़ा कि हमने लालचके वशमें होकर मूलभूत गुणोंकी उपेक्षा कर दी। तो यह मानता हूँ कि वर्ण-व्यवस्थाने ही हिन्दुत्वको छिन्नभिन्न होने से बचाया है।

लेकिन दूसरी प्रथाओंकी तरह ही यह प्रथा भी बहुत-से अस्वस्थ और अनावश्यक रीति-रिवाजोंका शिकार बन गई है। मैं समाजके सिर्फ चार बड़े विभाजनोंको ही मूलभूत, कुदरती और जरूरी मानता हूँ । बेशुमार उपजातियोंसे कभी-कभी कुछ लाभ भी होता है, लेकिन अक्सर तो उनसे अड़चन ही पैदा होती है। ऐसी उपजातियाँ जितनी जल्दी एक हो जायें उतनी ही समाजकी भलाई है। उपजातियोंके चुपचाप बनने और बिगड़नेका सिलसिला शुरूसे चला आ रहा है, और आगे भी चलता रहेगा। इस समस्या के समाधानके लिए हम सामाजिक दबाव और लोकमतपर भरोसा कर सकते हैं। लेकिन मैं मौलिक वर्ण-विभाजनोंको तोड़नेकी किसी भी कोशिशके खिलाफ हूँ। वर्ण-विभाग असमानतापर आधारित नहीं है, इसमें ऊँच-नीचका भी कोई सवाल नहीं है और जहाँ ऊँच-नीचका ऐसा कोई सवाल उठ रहा है, उदाहरणार्थ, मद्रास, महाराष्ट्र या अन्य स्थानोंमें, वहाँ उसे जरूर रोका जाना चाहिए। लेकिन इस प्रथाकी बुराइयोंके कारण इसे समाप्त कर देना उचित नहीं है। इसमें आसानी से सुधार हो सकता है। हिन्दुस्तान में और सारी दुनियामें लोकतन्त्रकी जो भावना तेजी से फैल रही है, उसके असरसे वर्ण-व्यवस्थामें से भी ऊँच-नीचके खयाल अपने-आप मिट जायेंगे, इसमें सन्देह नहीं है। लोकतन्त्रकी भावना कोई यान्त्रिक वस्तु नहीं है कि समाजके

  1. नवम्बर १९२० के पहले पखवारेमें; इस यात्राके दौरान दिये गये गांधीजीके भाषणोंके लिए देखिए खण्ड १८।