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वर्ण-व्यवस्था

बाहरी ढाँचेमें जोड़-तोड़ करके उसे उसके अनुकूल बना लिया जाये। यह तो हृदय-परिवर्तनकी अपेक्षा रखती है। अगर लोकतन्त्रको भावनाके फैलावमें जाँत-पाँत रुकावट हो, तो हिन्दुस्तान में जो एक साथ हिन्दु, ईसाई, इस्लाम, पारसी और यहूदी――पाँच धर्म वर्तमान हैं, वे भी इसमें रुकावट ही बनेंगे। लोकतन्त्रकी भावना लोगोंमें भ्रातृभावके संचारकी अपेक्षा रखती है। और मुझे तो किसी ईसाई या मुसलमानको इसी तरह अपना भाई मानने में कोई अड़चन मालूम नहीं होती, जिस तरह मैं सहोदरको भाई मानूँगा। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि जो हिन्दू धर्म वर्ण-व्यवस्थाके लिए जिम्मेदार है, उसी हिन्दू धर्मने सिर्फ मनुष्यके प्रति ही नहीं, बल्कि जीवमात्रके प्रति अनिवार्य रूपसे भ्रातृभाव रखनेका विधान भी किया है।

एक पत्र-लेखकका सुझाव है कि हमें अपनी वर्ण-व्यवस्था तोड़कर यूरोपकी वर्गप्रथा अपना लेनी चाहिए। मेरे खयालसे वे यह कहना चाहते हैं कि हमारी वर्ण-व्यवस्था में वंश-परम्पराकी जो भावना है, उसे समाप्त कर देना चाहिए। मुझे तो लगता है कि वंश-परम्पराका नियम चिरन्तन है, और उसे बदलने की कोशिशसे सदा अव्यवस्था फैली है और आगे भी फैलेगी। मुझे एक ब्राह्मणको उसके जीवनभर ब्राह्मण ही मानना बहुत उपयोगी जान पड़ता है। अगर वह ब्राह्मणके योग्य आचरण नहीं करता तो वह अपने-आप सच्चे ब्राह्मणको मिलनेवाला सम्मान खो बैठेगा। अगर हम दण्ड और पुरस्कार देनेवाली, पदोन्नति और पदावनति करनेवाली किसी अदालतकी स्थापना करें तो उसके मार्ग में कितनी बेशुमार कठिनाइयाँ आयेंगी, इसका अन्दाजा आसानी से लगाया जा सकता है। अगर हिन्दू पुनर्जन्ममें विश्वास करते हों――जैसा कि हर हिन्दूको करना चाहिए――तो उन्हें यह जानना चाहिए कि प्रकृति सबका हिसाब-किताब बराबर कर देगी, अर्थात् अगर ब्राह्मण दुराचारी है तो वह उसे निम्नतर जातिमें जन्म देगी और अगर कोई निम्नतर वर्गका व्यक्ति ब्राह्मणोचित जीवन व्यतीत करता है तो उसे अगले जन्म में ब्राह्मण बनायेगी। इसमें प्रकृतिसे कभी कोई चूक हो ही नहीं सकती।

मेरे विचारसे लोकतन्त्रकी भावनाको फैलाने के लिए विभिन्न जातियोंके बीच परस्पर रोटी-बेटीका सम्बन्ध होना जरूरी नहीं। किसी परिपूर्णसे परिपूर्ण लोकतान्त्रिक व्यवस्थाके अधीन भी खानपान और शादी-ब्याहके रीति रिवाज सर्वत्र एक-से होंगे, मैं ऐसा नहीं मानता। हमें हमेशा विविधताके बीच में ही एकता ढूंढ़नी होगी। मैं यह नहीं मानता कि किसी एकके साथ या हरएकके साथ खाने-पीने से इनकार करना पाप है। हिन्दुओंमें चचेरे भाई-बहनोंका एक-दूसरेके साथ व्याह नहीं होता। इससे उनका पारस्परिक स्नेह कम नहीं होता, बल्कि कदाचित् इससे उनके आपसी सम्बन्ध और अधिक शुद्ध तथा स्वस्थ हो जाते हैं। वैष्णवोंमें मैंने बहुत-सी माताओंको देखा है जो घरकी आम रसोईमें नहीं खातीं और न सबके उपयोग में आनेवाले बर्तनसे पानी पीती हैं। लेकिन इससे वे सारे परिवारसे अलग नहीं हो जातीं, न उनमें अहंकार आ जाता है और न प्रेम और ममत्व ही घट जाता है। ये बातें सिर्फ अनुशासनात्मक संयमसे सम्बन्ध रखती हैं। खुद उनमें कोई दोष नहीं है। अगर इनका पालन हास्यास्पद सीमा तक किया जाये तो ये नुकसानदेह हो जाती हैं, और अगर ऐसे संयम अहंकार या उच्चताकी