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६२. पत्र: सरलादेवी चौधरानीको

भागलपर जाते हुए
११ दिसम्बर, १९२०

तुम्हारे दो पत्र मिले। एक बहुत छोटा था, और दूसरा बहुत लम्बा-चौड़ा। इस दूसरे पत्रसे पता चलता है कि तुम मेरी बात, मेरे विचार नहीं समझती। तुम्हारे जटिल स्वभावपर मैंने किसी तरहकी झल्लाहट नहीं दिखाई है; हाँ, उसके सम्बन्ध में कुछ कहा अवश्य है। अगर कोई व्यक्ति कोई खामी लेकर ही जन्म ले, तो इसके लिए प्रकृति से कोई झगड़ा नहीं किया जा सकता; लेकिन अगर कोई उसकी ओर ध्यान दे और उसे दूर करने की कोशिश करे तो इसमें बुरा क्या है? मैंने यही किया है। जिस जटिलताको किसी तरह स्पष्ट न किया जा सके, समझाया न जा सके, उसे मैं कला नहीं मान सकता। धीरजके साथ विश्लेषण करनेपर सभी कलाएँ समझमें आ जाती हैं, और किसी चित्रमें चाहे जितनी विविधता हो, उसके पीछे कलाकारकी योजनाकी एकता अवश्य दिखाई देती है। लेकिन तुम तो, जब कोई मित्र प्रेमपूर्वक तुम्हें तुम्हारी खामियाँ दिखाता है तब भी, उनपर अड़ी रहती हो। मुझे इससे चिढ़ नहीं होती, लेकिन मैं जो तुम्हारी सहायता करना चाहता हूँ, वह काम तो मुश्किल हो ही जाता है। कोई अस्थिरचित्त हो, चिड़चिड़ा और झक्की हो तो इसमें कौन-सी कला है? यों तो सरलसे-सरल स्वभाव में भी कुछ-न-कुछ जटिलता तो होती ही है, लेकिन उसका विश्लेषण आसानीसे किया जा सकता है। ऐसे स्वभावको सरल भी इसीलिए कहा जाता है कि उसे आसानी से समझा जा सकता है और उपाय करनेपर जल्दी असर भी होता है। लेकिन में तुमसे झगड़ना नहीं चाहता। तुम एक समस्या हो, जिसे मुझे सुलझाना है। मैं धीरज नहीं छोडूँगा। बस, इतना ही खयाल रखो कि जो बातें मुझे स्पष्टतः तुम्हारी कमजोरियाँ जैसी लगती हैं, अगर उनकी ओर व्यान दिलाऊँ तो तुम नाराज न हो। कमजोरियों तो हममें होंगी ही। लेकिन मित्रको यह अधिकार है कि वह उन कमजोरियोंकी ओर स्नेहके साथ अपने मित्रका ध्यान दिलाये। जब मंत्री मित्रोंको सही मार्गकी ओर प्रवृत्त करे तभी वह दिव्य वस्तु बन पाती है। आओ, हम दोनों एक दूसरेको ऊपर उठानेकी कोशिश करें।

शुद्धिके बारे में तुम्हारे पत्रकी में व्यग्रतासे प्रतीक्षा करूँगा।

[अंग्रेजी से]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे।

सौजन्य: नारायण देसाई