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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

करनेसे रोक सकते हैं; बल्कि रोकना धर्म है। रामने रावणको मारा, इससे हम जिसे रावण मानते हों उसका संहार करना धर्म है। मनुस्मृतिमें लिखा है कि मांसाहार किया जा सकता है; इससे क्या वैष्णवको मांसाहार करना चाहिए? बीमार होनेपर, बीमारीसे छुटकारा पाने के लिए गोमांसका भक्षण भी किया जा सकता है, ऐसा मैंने शास्त्री और संन्यासी होनेका दावा करनेवाले व्यक्तियोंके मुख से सुना है। अगर मैंने इन सब शास्त्र-सम्मत बातोंको मानकर अपने सगे-सम्बन्धियोंका संहार किया होता, अंग्रेजोंको मार डालनेकी सलाह दी होती और बीमारीमें गोमांसका भक्षण किया होता तो मेरी क्या दशा होती? मैंने ऐसे समय में अपनी बुद्धिकी, अपने हृदयकी बातको माना, उसे ही धर्म समझा, इसीसे मैं बच पाया हूँ और सबको वैसा ही करने की सलाह देता हूँ।

इसीसे निर्मल आचरण करनेवाले तपस्वियोंने हमें सिखाया है कि जो वेदादिका अध्ययन करते हैं लेकिन धर्मपर आचरण नहीं करते वे वेदवित् भले ही कहलायें लेकिन वे न स्वयं तरते हैं और न दूसरोंको ही तार सकते हैं। यही कारण है कि में वेदोंको कंठस्थ करनेवाले अथवा उनकी टीकाओंको याद रखनेवाले व्यक्तियोंसे प्रभावित नहीं होता, उनके ज्ञानसे चकित नहीं होता और अपने अल्प ज्ञानको अधिक मूल्यवान समझता हूँ।

मेरे इन विचारोंके कारण जब महाराजश्रीने अपने शास्त्रनिर्णयका सिद्धान्त मुझे सुनाया तब मुझे दुःख हुआ, लेकिन उनकी सरलतासे मैं प्रसन्न हुआ। शास्त्रका मेरेसे उलटा अर्थ करते हुए भी उन्होंने यह निर्णय अवश्य दिया कि जिस स्कूलमें मुसलमान, पारसी, ईसाई, यहूदी आदि आ सकते हैं उससे अन्त्यजोंको दूर रखनेकी बातको न्याय नहीं कहा जा सकता । जो वैष्णव अनेक दुनियावी कार्योंमें धन देते हैं, जो जुए आदिमें भी धन का अपव्यय करते हैं उन्हें राष्ट्रीय शालामें, जिसमें अन्त्यज भी दाखिल किये जाते हों, धार्मिक प्रतिबन्धका बहाना बनाकर दान देने से इनकार करनेका अधिकार नहीं है। किन्तु, जिन स्कूलोंमें अन्त्यज जाते हों उनमें वैष्णव लोग अपने लड़कोंको न भेजना चाहें तो उनसे इसके लिए आग्रह नहीं किया जा सकता। महाराजश्रीने ऐसाव्यावहारिक निर्णय दिया।

लेकिन उनके आसपासके शास्त्रियोंने जो दलीलें पेश करनी आरम्भ की उनसे मैं दुःखी हो गया; मुझे सरलताकी जगह अपने मतके प्रति दुराग्रह ही दिखाई दिया। शास्त्री वसन्तरायजी द्वारा ‘गुजराती’ में लिखा गया लेख उसका एक नमूना है।[१]

उनसे और ‘गुजराती’ के सम्पादकसे मैं विनम्रतापूर्वक कहना चाहूँगा कि सार्वजनिक सेवा करनेवाले व्यक्तिका धर्म प्रवाहकी गतिमें बह जानेका नहीं है बल्कि उसका धर्म अगर जन-मानसका प्रवाह गलत दिशा में प्रवाहित हो रहा हो तो उसे सही दिशाकी ओर प्रवृत्त करनेका है।

मैं शास्त्रोंके ज्ञानसे अनभिज्ञ हूँ, अनुभवहीन हूँ, हठधर्मी हूँ, ऐसा कहकर मुझे वैष्णव धर्मसे दूर किया जा सकता सम्भव नहीं है। जबतक में यह मानता हूँ कि

  1. २१-११-१९२० को गुजराती में प्रकाशित “गुजरात विद्यापीठ और अन्त्यज” नामक लेखमें।