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वैष्णव और अन्त्यज

वैष्णवपनकी परीक्षा सदाचरणमें है, वाद-विवाद, वाक्-चातुरी अथवा शास्त्रार्थमें नहीं, तबतक मैं अपने दावेको नहीं छोड़ना चाहता।

अस्पृश्यताको पाप समझना पश्चिमी विचार है, ऐसा कहना पापको पुण्य माननेके बराबर है। अखा भगतने[१] कोई पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त नहीं की थी, लेकिन उन्होंने ही कहा है कि “अस्पृश्यता अतिरिक्त” अंग है। अपने दोषोंको दूर करनेके प्रयत्नोंको इतर धर्मका अंग मानकर उनको अस्वीकार करके अपने दोषोंको बनाये रखना धर्मान्धता है और इससे धर्मका ह्रास होता है।

दलील यह दी गई है कि अस्पृश्यताका कारण घृणा नहीं है। ऐसी ही दलील हमारे सम्बन्धमें अंग्रेज भी देते हैं। वे हमें अपने से अलग रखते हैं, ‘देशी’कहते हैं इसमें घृणाकी कोई भावना नहीं है। वे हमें अलग डिब्बोंमें बिठाते हैं सो सिर्फ ‘आरोग्यकी व्याख्या’ के कारण ही बिठाते हैं, उसमें द्वेषकी भावना नहीं है――ऐसा उनका दावा है। वैष्णवोंको मैंने अन्त्यजोंको इसलिए गाली देते और मारते हुए देखा है, कि वे अनजाने ही उनके शरीरसे छू गये। ऐसे व्यवहारको धर्म मानना पाखण्ड है, पाप है; ब्राह्मणके निकलते समय अन्त्यजको दीवारकी ओर मुँह करनेका आदेश देना उद्धतता है। अन्त्यजोंको जूठन देना, सड़ी-गली वस्तुएँ देना नीचता है। इस व्यवहारका मूल अस्पृश्यता है।

मैं इस तर्कको कि अन्त्यज नहाने, साफ कपड़े पहननेसे शुद्ध नहीं हो जाते, समझ नहीं पाया हूँ। क्या अन्त्यजका अन्तःकरण मैला होता है? क्या जन्मसे ही वह मनुष्य नहीं होता? क्या अन्त्यज पशुसे भी गया-गुजरा है?

मैंने अनेक अन्त्यजोंको सरल हृदय, ईमानदार, ज्ञानी और ईश्वरभक्त पाया है। उन्हें मैं सब तरहसे वंदनीय मानता हूँ।

अन्त्यज गन्दा हो, अन्त्यजने मैला साफ किया हो तथापि स्नान न किया हो, और फिर इसलिए उसे छुआ न जाये तो मैं समझ सकता हूँ। लेकिन वह चाहे कितना ही शुद्ध क्यों न हो परन्तु उसे छुआ न जाये, यह तो अधर्मकी सीमा है। अनेक ऐसे लोगोंको जो अन्त्यज नहीं हैं, मैंने बहुत गन्दा पाया है, अनेक ईसाई भी मैला ढोते हैं। डाक्टरोंका तो धर्म ही मैल धोना है, इन सबको छूनेमें हम पाप नहीं समझते। डिग्री-विहीन हमारे इन अपढ़ डाक्टरोंका अनादर करके हम पापमें पड़ते हैं और वैष्णव धर्मको कलंक लगाते हैं।

अस्पृश्यता और वर्णाश्रम दोनोंको शास्त्री बसन्तरामजी तथा ‘गुजराती’ के सम्पादक एक ही वस्तु मानते जान पड़ते हैं। मेरी अल्पमतिके अनुसार वर्णाश्रम धर्म है, वह शाश्वत है, व्यापक है, प्रकृतिके अनुकूल है और व्यवहारकी एक व्यवस्था है। वह हिन्दू धर्मका शुद्ध बाह्य स्वरूप है।

अस्पृश्यता हिन्दू धर्मका दूषण है। सम्भवतः वह कभी समाजकी अवनतिके दिनोंमें कुछ कालके लिए आपद्धर्मके रूपमें आरम्भ की गई एक व्यवस्था थी। यह अव्यापक है और शास्त्रों में इसका समर्थन नहीं किया गया है। इसके समर्थनमें जिन इलोकोंको

  1. सत्रहवीं शताब्दीके रहस्यवादी कवि; अपने व्यंग्यके लिए विख्यात; वेदान्ती और हेतुवादी।