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भाषण: कलकत्तामें असहयोगपर

देकर आपसे यह भी कहना चाहूँगा कि भारत हिंसात्मक तरीकोंसे पुनः अपना सच्चा गौरव कभी प्राप्त नहीं कर सकता।

लॉर्ड रोनाल्डशेने स्वराज्यपर मेरी पुस्तिका[१] पढ़ी, इसके लिए में उनका आभारी हूँ। यह पुस्तक पढ़कर उन्होंने मेरे देशभाइयोंको आगाह किया है कि वे, जैसे स्वराज्यकी कल्पना मैंने इस पुस्तकमें दी है, वैसे स्वराज्यके लिए कदापि संघर्ष न करें। यों तो में उस पुस्तिकामें से एक भी शब्द वापस नहीं लेना चाहता, लेकिन इस अवसरपर आपको यह बता देना चाहूँगा कि मैं आज भारतसे उसमें बताये गए तरीकोंपर चलनेको नहीं कहूँगा। अगर आप उनके अनुसार चल सकें तब तो एक वर्ष क्यों, एक दिनमें ही आपको स्वराज्य प्राप्त हो जाये। भारत उस आदर्शको चरितार्थ करके सारी दुनियामें मूर्धन्य स्थान प्राप्त करना चाहता है, लेकिन अभी कुछ समयतक तो यह कमोबेश दिवा-स्वप्न-जैसा ही रहेगा। आज तो मैं देशको एक ऐसा व्यावहारिक कार्यक्रम दे रहा हूँ जिसका उद्देश्य न्यायालयों, डाक व तार व्यवस्था, तथा रेलमार्गौका खात्मा करना नहीं, बल्कि संसदीय स्वराज्य प्राप्त करना है। मैं आपसे यह कहता हूँ कि अगर हम सरकारसे विलकुल अलग नहीं हो जाते तो स्कूलों, न्यायालयों, कौंसिलों, सैनिक व असैनिक सेवाओं तथा कर-दान और विदेशी व्यापारके माध्यमसे हम उसके साथ सहयोग ही कर रहे हैं।

जिस क्षण हम यह समझ जायेंगे और असहयोग शुरू कर देंगे उसी क्षण सरकारकी इमारत भरभराकर बैठ जायेगी। अगर मुझे विश्वास हो जाये कि जनसाधारण इसी समय सारे कार्यक्रमके लिए तैयार है, तो मैं उसे अमलके लिए सामने पेश करने में विलम्ब नहीं करूँगा। इस समय यह सम्भव नहीं है कि जो लोग कानूनका अमल कराने के लिए आयेंगे, जनसाधारण उनके खिलाफ अपना गुस्सा व्यक्त न करे; यह भी सम्भव नहीं है कि बिना किसी प्रकारकी हिंसक कार्रवाई किये सैनिक अपने हथियार डाल देंगे। अगर आज यह सम्भव होता तो असहयोगके सारे चरणोंको मैं एक ही साथ कार्यान्वित करनेको कहता। लेकिन अभी हम जनसाधारणको इतना अनुशासित नहीं बना पाये हैं। हमने तो राष्ट्रका कीमती समय वर्षों एक ऐसी भाषाको सीखने में बरबाद कर दिया, स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए जिसकी हमें कोई जरूरत नहीं है। ये सारे वर्ष हमने मिल्टन और शैक्सपियरसे स्वतन्त्रताका पाठ पढ़ने में, (स्टुअर्ट) मिलकी रचनाओंसे प्रेरणा ग्रहण करने में गँवा दिये, जब कि स्वतन्त्रताका सच्चा पाठ हम अपने ही घरमें सीख सकते थे। इस तरह हम केवल जनसाधारणसे अपने आपको अलग कर लेनेमें ही सफल हुए हैं। हम पाश्चात्य सभ्यताके रंग में रंग गये हैं। इन ३५ वर्षोंमें हमने अपनी शिक्षाका उपयोग जन-मानसमें प्रवेश पानेके लिए नहीं किया। हम केवल जनताकी पहुँचसे परे ऊँचे मंचोंपर बैठकर उसे अपने भाषण पिलाते रहे हैं और सो भी एक ऐसी भाषामें जिसे वह बिलकुल नहीं जानती। नतीजा यह है कि आज हम कोई भी बड़ी सभा अनुशासित ढंग से संचालित नहीं कर पाते, और अनुशासन तो सफलताकी कुंजी है। मैंने असहयोगके प्रस्तावमें[२] जो “क्रमिक” शब्दका प्रयोग किया

  1. देखिए “टिप्पणियाँ”, ८-१२-१९२०।
  2. सितम्बर १९२० में कलकत्तामें आयोजित कांग्रेसके विशेष अधिवेशनमें पास किया गया प्रस्ताव।