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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है, उसका एक कारण यह भी है। अगर आप धृष्टता न समझें तो मैं कहूँगा कि भारतके जन-मानसको जितना मैं समझता हूँ उतना कोई भी शिक्षित भारतीय नहीं समझता। मेरे विचारसे, जनता अभी करकी अदायगी बन्द करनेकी स्थितितक नहीं पहुँची है, उसने अबतक पर्याप्त आत्म-संयम नहीं सीखा है। अगर मुझे यह भरोसा हो जाये कि वह अहिंसापर दृढ़ रहेगी तो मैं आज ही राष्ट्रके बहुमूल्य समयका एक क्षण भी बरबाद किये बिता, उससे कर देना बन्द कर देने को कह दूँ। मुझे तो भारतकी आजादीकी लगत लग गई है, और इस्लामकी आजादी भी मुझे उतनी ही प्यारी है। इसलिए अगर मुझे यह विश्वास हो जाये कि सारे कार्यक्रमपर तत्काल अमल किया जा सकता है तो मैं क्षण-भरकी भी देर न करूँ।

अपने कुछ प्यारे और सम्माननीय नेताओंको सभामें उपस्थित न देख कर मुझे बड़ा दुःख हो रहा है। इस समय यहाँ सुरेन्द्रनाथ बनर्जीके[१]सिंहनादका सुनाई न पड़ना बड़ी खटकनेवाली बात है। उन्होंने देशकी इतनी सेवा की है, जिसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। यद्यपि आज हम एक-दूसरेसे बिलकुल विपरीत बिन्दुओंपर खड़े हैं, हमारे बीच गहरे मतभेद हो सकते हैं, फिर भी हमें उनको प्रकट करनेमें संयमसे काम लेना होगा। मैं आपसे अपने सिद्धान्तका रंच-मात्र भी त्याग करनेको नहीं कहता। मैं तो कर्म और वचन, दोनों तरहसे अहिंसा बरतनेको ही कहता हूँ। अगर सरकारके साथ हमारे व्यवहारमें अहिंसा जरूरी है, तो अपने नेताओंके साथ व्यवहारमें तो वह और भी जरूरी है। पूर्व बंगालमें अभी हाल में अपने ही लोगोंके विरुद्ध हिंसाकी जिन वारदातोंकी खबर मिली है, उन सबको सुनकर तो मेरा मन बहुत दुखी हुआ है। मुझे यह सुनकर बड़ा दुःख हुआ कि हालके चुनावोंमें मत देनेपर एक व्यक्तिके कान काट दिये गये और इन चुनावों में उम्मीदवारकी तरह खड़ा होनेपर एक अन्य व्यक्तिके बिस्तरपर पाखाना फेंका गया। इस तरह तो असहयोग कभी सफल नहीं होगा। जबतक हम पूर्ण स्वतन्त्र और आतंकहीन वातावरण तैयार नहीं कर देते, जबतक हम अपने विरोधियोंकी स्वतन्त्रताका भी अपनी ही स्वतन्त्रताकी तरह आदर नहीं करते तबतक यह आन्दोलन कदापि सफल नहीं हो सकता। हम अपने लिए धर्म, अन्तरात्मा, विचार और कर्मकी जिस स्वतन्त्रताकी मांग करते हैं, वही स्वतन्त्रता हमें उसी मात्रामें दूसरोंको भी देनी चाहिए। असहयोग शुद्धीकरणकी एक प्रक्रिया है, और हमें बराबर, हमसे भिन्न मत रखनेवालोंके हृदय, मस्तिष्क और भावनाको जगाना चाहिए, झकझोरना चाहिए; लेकिन कभी उनके शरीरपर हाथ नहीं उठाना चाहिए। अनुशासन और संयम हमारे आचरणके मुख्य सिद्धान्त हैं; मैं आपको आगाह कर देना चाहता हूँ कि आप किसी तरहके उत्पीड़क सामाजिक बहिष्कारका प्रयोग भी न करें। इसलिए जब मैंने दिल्ली में एक व्यक्तिकी लाशके साथ किये गये अपमानजनक व्यवहारके बारेमें सुना तो मुझे बहुत दुःख हुआ। अगर यह काम असहयोगियोंने किया

  1. सर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी (१८४८-१९२५); प्रसिद्ध वक्ता और राजनीतिज्ञ; १८९५ और १९०२ में कांग्रेसके अध्यक्ष; बादमें उदार दलमें शामिल हो गये और मॉण्टेग्यु-चैम्सफोर्ड सुधार अधिनियमके अधीन बंगालमें जो मंत्रिमण्डल बना उसमें भी शामिल हुए।