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भाषण: विद्यार्थियोंकी सभा, कलकत्ता में

रिसता रहेगा; और यदि हिन्दू अपने मुसलमान भाइयोंके प्रति अपने कर्त्तव्यका पालन करना चाहते हैं तो उन्हें मुसलमानोंके इस संकट-कालमें उनका साथ देना चाहिए। इसी तरह ब्रिटिश सरकार द्वारा पंजाबमें जो कुछ किया गया उससे भारतके हृदयको आघात पहुँचा है लेकिन उसे इसके लिए कोई पश्चात्ताप नहीं होता। वह भारतीयोंसे कहती है कि वे उन अन्यायोंको भूल जायें। टर्कीको सन्धिके मामलेमें भी वह केवल अपनी लाचारी प्रकट करती है। हमारे सामने प्रश्न यह है कि क्या भारतीय अपने आत्म-सम्मान और गौरवको ध्यान में रखते हुए ऐसी सरकारका साथ देते रह सकते हैं जिसने पंजाबमें अत्याचार किये हैं, जिसपर टर्कीकी सन्धिकी जिम्मेदारी है और जिसके शासन में निर्दोष लोग मारे गये हैं।

अब भारतको तय करना है कि वह क्या चाहता है। मुझे यह माननेमें कोई झिझक कि यदि इन दो अत्याचारोंके बाद भी हमारी नींद नहीं टूटती तो असहयोग आन्दोलनकी बात करना ही बेमतलब होगा। यदि हम ऐसी सरकारका साथ देते रहते हैं तो हम एक राष्ट्र कहलाने के अधिकारी ही नहीं रह जाते। जबतक वह इन अन्यायोंका परिमार्जन नहीं करती, हम सहयोग नहीं कर सकते। संकट-ग्रस्त लोगोंके सामने दो रास्ते होते हैं: या तो वे हथियार लेकर लड़ें या सरकारसे असहयोग करें। समस्त भारतके लोगोंने यह स्वीकार कर लिया है कि वे हथियार उठानेमें असमर्थ हैं। मेरी दृष्टिमें हथियार लेकर लड़ना पाप है, यद्यपि बहुसंख्यक मुसलमान और खासी बड़ी संख्या में हिन्दू हथियार न उठाना केवल नीतिके रूपमें ही ठीक मानते हैं। यह एक मानी हुई बात है कि [आज] हथियारोंसे लड़ना असम्भव है। तब हम उस सरकारसे कैसे निबट जो एक लाख अंग्रेज सैनिकोंकी मददसे ३० करोड़ लोगोंको गुलाम बनाये हुए है?

दूसरा सवाल यह है कि सरकार भारतको गुलाम कैसे बनाये हुए है? [हमारे सहयोगके बलपर]। मैं तो कहता हूँ कि यदि हम सभी हर प्रकारका सहयोग देना बन्द कर दें तो यह सरकार तुरन्त लड़खड़ाकर गिर पड़ेगी और नष्ट हो जायेगी। जबतक हम अदालतों, कौंसिलों और स्कूलोंके जरिये इस सरकारसे सहयोग करते हैं, हम गुलाम हैं। मैं तो इन तीनोंको ही माया या भ्रम कहता हूँ। जबतक हम यह मानते हैं कि हम जिस सरकारको संरक्षण देते हैं या जिसके अनुशासनको मानते हैं उसके द्वारा नियन्त्रित संस्थाओंके बिना हमारा काम नहीं चल सकता――अदालतोंके बिना हमें न्याय नहीं मिल सकता, कौंसिलोंके बिना हमारे कानून नहीं बन सकते और सरकारी स्कूलोंके बिना शिक्षा नहीं हो सकती――तबतक हम गुलाम रहेंगे। आज विद्यार्थियोंके सम्मुख प्रश्न कर्त्तव्यका है। जबतक छात्रगण शिक्षाके अकालका सामना करनेके लिए तैयार न हों, तबतक यह नहीं कहा जा सकता कि वे अपने कर्त्तव्यका पालन कर रहे हैं। आपके सामने प्रश्न बहुत सीधा-सादा है――इन स्कूलोंमें व्याप्त ताना-शाही-जैसे वातावरणसे आपको अरुचि हुई है या नहीं, आपके समूचे व्यक्तित्वमें यह