पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 19.pdf/१४०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
११२
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

द्रोह-भावना उत्पन्न हुई है या नहीं कि आप इस सरकारसे कोई सम्बन्ध नहीं रखेंगे? मैं जो बात कहता हूँ वह बहुत सीधी-सादी है। यदि हममें अभी राष्ट्रीय चेतना नहीं आई है, यदि हमारे अन्दर राष्ट्रीय आत्मसम्मानका कोई भाव नहीं है, तो मैं जो असहयोगकी पैरवी करता हूँ उसमें कोई जान ही नहीं रह जाती। मुझे बोअर युद्धकी एक घटना याद आती है। जब राष्ट्रपति क्रूगरने[१] ब्रिटिश सरकारको चुनौती दी, तो सभी छात्र स्कूलोंसे निकल आये और उनकी पढ़ाईकी कोई व्यवस्था नहीं की गई। इसके विपरीत वे खन्दकोंमें लड़ते और लड़ाईके मैदान में घायलोंकी मदद करते हुए दिखाई पड़ते थे। उन्होंने यह नहीं सोचा कि उनकी पढ़ाई बन्द होनेसे उनका मानसिक विकास रुक जायेगा। ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज और बैरिस्टरीके कालेजोंने अपने विद्यार्थियोंको युद्ध-क्षेत्रमें कैसे भेजा था? वे क्या खन्दकोंमें लड़ने नहीं गये? मैंने स्वयं उनमें से कुछको लेकर बीमारों और घायलोंकी सहायताके लिए एक आहत-सहायक दल बनाया था। इसके लिए उसी सरकार द्वारा मेरी सेवाकी कृतज्ञतापूर्वक सराहना की गई थी, जिसके साथ सहयोग करना मुझे अब असम्भव लगता है। सबके दिलोंमें एक ही चाह थी कि दुश्मनको हराया जाये। भारतके लिए आज वही चीज दावपर लगी हुई है, जो उस समय इंग्लैंडके लिए लगी हुई थी। इंग्लैंड अपने अस्तित्वके लिए, अपने सम्मानके लिए लड़ रहा था। चूँकि इंग्लैंडके सम्मानपर आक्रमण किया गया था, इसलिए वह अपने सर्वस्वकी बलि देनेको तैयार था। क्या भारत भी वैसी ही स्थितिमें नहीं पहुँच गया है? क्या भारतमें आत्मसम्मानकी इतनी चेतना हैकि उसका हृदय इस अपमानसे तिलमिला उठे और जब उसके जीवन और सम्मानका वैसी ही स्थितिमें नहीं पहुँच गया है? क्या भारतमें आत्मसम्मानकी इतनी चेतना है कि उसका हृदय इस अपमानसे तिलमिला उठे और जब उसके जीवन और सम्मानका सवाल खड़ा है तो उनकी रक्षाके लिए वह वैसा ही बलिदान करनेको तैयार हो?

इसके बाद, उन्होंने सभामें उपस्थित लोगोंको वे दो पत्र दिखाये, जिनमें विद्यार्थीयोंने पूछा था कि कालेज छोड़ने के बाद हम क्या करेंगे, कहाँ जायेंगे? महात्मा गांधीने कहा: आप लोगोंके लिए मेरा यही सन्देश है कि आप सभी सरकार द्वारा नियन्त्रित स्कूलोंको छोड़ दें, यह हमारे सम्मानकी रक्षाके लिए जरूरी है। सरकारके सा किसी भी तरहसे सहयोग करना गलत है। स्कूल और कालेज छोड़नेके बाद आप क्या करेंगे? आप पत्थर फोड़ सकते हैं और भारतके बदबू भरे तबेलोंको झाड़-बुहार कर साफ-सुथरा बना सकते हैं। मैं आपसे कोई वादा या सौदा करना नहीं चाहता। यह तो आपका कर्तव्य है; और इसके लिए किसी पुरस्कारकी कोई जरूरत नहीं। यह एक ऐसा ऋण है, जो जान देकर भी चुकाया जाना चाहिए। आपको इसका पुरस्कार स्वर्गमें मिलेगा, इस दुनिया में नहीं। आपको यहाँ जो पुरस्कार मिलेगा, वह् स्वतन्त्रता है। लेकिन सरकार द्वारा नियन्त्रित स्कूल उन्हें ही छोड़ने चाहिए जिन्हें स्कूल जानेपर हर बार घुटन महसूस होती है। [उन्होंने आगे कहा:]

  1. एस० जे० पॉल क्रूगर (१८२५-१९०४); ट्रान्सवाल्के राष्ट्रपति, १८८३-१९००।