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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

और उसीको एक नवयुवककी आवाज बन्द करनेका काफी कारण माना गया है। मुकदमा चलानेके ढोंगसे भी एक उपयोगी प्रयोजन सिद्ध होता है। उससे अभियुक्त इतना तो जान लेता है कि उसकी स्वतन्त्रतापर प्रतिबन्ध लगानेका कारण क्या है। ऊपर जो आदेश उद्धृत किया गया है, उसके अन्तर्गत श्री नगेन्द्रनाथ भट्टाचार्य भी यह नहीं जान पाये कि उनका अपराध क्या है; फिर जनताकी तो बात ही क्या। इसपर भी कुछ ऐसे लोग हैं जो आश्चर्यके साथ पूछते हैं कि इस देशमें घृणा क्यों है; और तब वे उसका कारण सरकारकी धूर्तता और असहिष्णुता नहीं, बल्कि असहयोग ही बताते हैं――वही असहयोग जो इस घृणाको नियन्त्रित करने और अन्ततः समाप्त करनेका एकमात्र उपाय है।

पंजाबमें भी

कानूनके जरिये किये जानेवाले दमनके अलावा, एक प्रशासनिक दमन भी होता है; इस प्रशासनिक दमनके मामले में पंजाब बंगालसे पीछे नहीं है। मौलाना जफरअली खाँपर मुकदमा चलाकर उन्हें सजा दी ही गई थी। अब आगा सफदरको भी, जो बड़े ही खरे चरित्रके कार्यकर्ता, अपने क्षेत्रके बहुत प्रभावशाली व्यक्ति और खिलाफत-समितिके मन्त्री हैं, यह प्रशासनिक आज्ञा दी गई है कि वे सार्वजनिक सभाओं में भाषण न दें। अभी मैंने इस आशयका एक तार ही देखा है। मैं इस मामले में आगे और जाँच कर रहा हूँ। लेकिन इस खबरकी सचाईमें सन्देह करनेका कोई कारण नहीं जान पड़ता। यदि इसे सच मान लें, तो इस आज्ञासे प्रकट होता है कि पंजाब-सरकार भाषणकी स्वतन्त्रताको सहन नहीं कर सकती। लाला लाजपतरायने[१]लेफ्टिनेंट गवर्नरको लिखे गये अपने तीखे पत्रोंमें यह साफ बता दिया है कि सर माइकेल ओ'डायरके शासनमें पंजाबियोंकी जैसी हालत थी, सर एडवर्ड मैकलेगनके[२] शासनमें कुछ उससे ज्यादा अच्छी नहीं है। निःसन्देह, सर एडवर्डके तरीके वैसे मनमानें नहीं हैं जैसे सर माइकेल ओ'डायरके होते थे। किन्तु पंजाबियोंको इससे क्या लाभ कि उनको जिस जंजीरमें बाँध रखा गया है वह सोनेकी है या लोहेकी? धोखा देनेवाली सोनेका पानी चढ़ी जंजीरोंसे तो साफ दिखनेवाली असली लोहेकी जंजीरें हमेशा ही अच्छी रहती हैं। क्या अधिक नरम किस्मके वर्तमान प्रशासनिक तरीकोंके कारण, पंजाब तत्त्वतः कुछ ज्यादा स्वतन्त्र है? क्या लोग ज्यादा आत्म-गरिमाका अनुभव करते हैं? अब समय आ गया है जब हमें सच्ची स्थिति समझ लेनी चाहिए। भारतके प्रशासन के पीछे जो भावना है वह बुरी, अपमानजनक और दासताके बन्धन दृढ़ करनेवाली है। इसलिए जो हमपर शासन करता है वह देवता है या दानव, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मैंने आगा सफदरके मामलेका जो हवाला दिया है उसका मतलब सिर्फ यह बताता है कि सरकार जो बड़ी-बड़ी घोषणाएँ करती है, उसके कारनामोंसे वे झूठी पड़ जाती हैं।

  1. १८६५-१९२८; समाज-सुधारक और पत्रकार; पंजाबके राष्ट्रवादी नेता।
  2. २६ मई, १९१९ को पंजाबके लेफ्टिनेन्ट गवर्नर थे।