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कुछ शंकाएँ


बाबू जनकधारी प्रसाद चम्पारनमें मेरे सहयोगी थे।[१] उन्होंने मुझे एक लम्बा पत्र लिखकर उसमें अपना यह विश्वास प्रकट किया है और अपने इस विश्वासके कारण भी गिताये हैं कि भारतको एक बड़ा भारी उद्देश्य पूरा करना है और उसका यह उद्देश्य अहिंसात्मक असहयोग से ही पूरा हो सकता है। लेकिन उनकी कुछ शंकाएँ हैं। वे चाहते हैं उनका उत्तर में सार्वजनिक रूपसे दूँ। पत्र लम्बा है, इसलिए मैं उसे यहाँ नहीं छाप रहा हूँ; लेकिन उनकी शंकाएँ विचारणीय हैं और मुझे उनका उत्तर देने का प्रयत्न करना ही चाहिये। बाबू जनकधारी प्रसादने उनको इस रूपमें रखा है।

(क) क्या असहयोग आन्दोलनसे अंग्रेजों और भारतीयोंके बीच एक तरहकी जातीय घृणा पैदा नहीं हो रही है और क्या यह मानवमात्रमें प्रेम और भाई-चारेकी ईश्वरीय योजनाहके अनुकूल है?(ख) क्या ‘शैतान’, ‘दानवी’ आदि शब्दोंके प्रयोगसे ऐसा एक भाव नहीं टपकता जो भाईचारेके विरुद्ध है और क्या उससे घृणाको उत्तेजना नहीं मिलती?

(ग) क्या असहयोग आन्दोलन कथनी और करनी दोनों ही में पूर्णतया अहिंसात्मक और भावावेशरहित ढंगसे नहीं चलाया जाना चाहिए?

(घ) क्या आन्दोलनके नियन्त्रणसे बाहर हो जाने और हिंसापूर्ण बननेका कोई खतरा नहीं है?

प्रश्न (क) के सम्बन्धमें मुझे कहना ही चाहिए कि यह आन्दोलन जातीय घृणा “पैदा” नहीं कर रहा है। जैसा में कह चुका हूँ, इसके द्वारा [पहलेसे मौजूद घृणाको] एक संयत अभिव्यक्ति मिलती है। आप बुराईका उन्मूलन उसको नजरअन्दाज करके नहीं कर सकते। चूंकि मैं सब लोगोंमें भाईचारा बढ़ाना चाहता हूँ, इसीलिए मैंने असहयोग आन्दोलन आरम्भ किया है ताकि भारत आत्मशुद्धिके जरिये अधिक अच्छे संसारका निर्माण कर सके।

प्रश्न (ख) के सम्बन्ध में जानता हूँ कि “शैतानी” जैसे शब्द कड़े हैं, लेकिन उनसे सत्य यथार्थ रूपमें व्यक्त होता है। ये व्यक्तियोंके नहीं, एक प्रणालीके सूचक हैं। यदि हम बुराईसे बचना चाहते हैं तो हमें उससे घृणा अवश्य करनी पड़ेगी। लेकिन असहयोगसे हम बुराई और बुराई करनेवाले में अन्तर कर सकते हैं। यदि मेरा कोई भाई कोई खास आसुरी काम करता है तो मुझे उसको बताने में कोई कठिनाई नहीं होती; मुझे इसका कारण उसके प्रति मेरे मनमें पहलेसे घृणा रहना नहीं जान पड़ता। असहयोग हमें यह सिखाता है कि यदि हमारे साथियोंमें कोई दोष हों तो उन दोषोंकी उपेक्षा किये बिना हम उनसे प्रेम कर सकते हैं।

प्रश्न (ग) के सम्बन्धमें: आन्दोलन निश्चय ही विशुद्ध अहिंसात्मक आधारपर चलाया जा रहा है। यह सच है कि सब असहयोगियोंने अभीतक इस सिद्धान्तको पूरी तरह अपनाया नहीं है। लेकिन इससे तो यही पता चलता है कि हमें कितनी

  1. १९१७ के आन्दोलनके समय।