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चम्पारनमें डायरशाही

तरह भाग गये थे। लोगोंने हमें वे घर दिखाये जिनमें अनाजके खाली, टूटे हुए कुठिले पड़े थे, अनाज इधर-उधर फैला हुआ था, बड़े-बड़े सन्दूकोंके ताले तोड़ डाले गये थे और उनको खोलकर उनकी चीजें निकाल ली गई थीं।

कहनेकी जरूरत नहीं कि जिस आदमीको पुलिसकी हिरासतसे छुड़वा लिया गया था, उसे अन्य कई लोगोंके साथ पुलिसने उसी समय फिर गिरफ्तार कर लिया। इनमें एक वहींका ब्रह्मचारी है। वह काफी प्रभावशाली आदमी है। उसने पंचायतें कायम की हैं और वह उनके जरिये वहाँके झगड़ोंका निपटारा करता है। उसकी कार्रवाईसे गाँव में पंच-फैसलेके सिद्धान्त लोकप्रिय हो रहे हैं। पुलिस स्वभावतः ही उसका असर कम करना चाहती थी। उसे शक था कि उसकी सत्ताको चुनौती देनेके लिए लोगोंको भड़कानेमें उस ब्रह्मचारीका हाथ है; (मुझे जो साक्षी मिली है उससे ऐसा ही लगता है)। इसलिए पुलिसने ब्रह्मचारीको पकड़ लिया है और अब वह जमानतपर छूट चुका है।

शायद अब मुकदमे चलाये जायेंगे। इनका क्या नतीजा होगा उससे मुझे कोई मतलब नहीं। जो लोग गिरफ्तार किये गये हैं उनमें से कुछको गढ़ी हुई गवाहीके आधारपर सजा भी दी ही जायेगी। वादी और प्रतिवादी दोनों पक्षोंकी ओरसे जितनी झूठी गवाही चम्पारनमें दी जाती है, उतनी भारत में किसी दूसरी जगह नहीं दी जाती। भले ही यह अविश्वासनीय लगे किन्तु जो घटना मैंने यहाँ दी है वह अपने ढंगकी पहली नहीं है। चम्पारनके किसान जितने असहाय और भय-वस्त, उतने मैंने किसी दूसरी जगहके नहीं देखे। वे पुलिसके आते ही डरके मारे अपने गाँव छोड़कर भाग जाते हैं। पुलिस भी ऐसी ही भ्रष्ट हो गई है। उसमें रिश्वत और भ्रष्टाचारका बोल-बाला है। और जब कभी लोगोंने पुलिसके व्यवहारपर रोष प्रकट किया है, जैसा कि इस मामले में हुआ, उन्हें आतंकवादी तरीकोंसे कुचल कर और अधिक असहाय बना दिया गया है। स्थानीय “डायरों” के इस कार्यमें मजिस्ट्रेटोंका योगदान कुछ कम नहीं रहा है।

कभी-कभी मजिस्ट्रेटोंने या सरकारने पुलिसकी लानत-मलामत भी की है। किन्तु वह उसकी परवाह नहीं करती। पुलिसके छोटे कर्मचारियोंको तो उस लानत-मला-मतका पतातक नहीं चलता, और वे और भी कम परवाह करते हैं। आतंकके ये तौर-तरीके जारी हैं और खूब इस्तेमाल किये जाते हैं।

तब लोगोंकी सहायता कैसे की जाये? यह भ्रष्टाचार कैसे हटाया जाये? सरकारी तौरपर जाँच करवानेसे तो यह निश्चय ही सम्भव नहीं है। उससे तो पुलिसकी ताकत ही बढ़ेगी। पुलिस इस वक्त अपनी स्थिति मजबूत कर रही है; वह सबूत खतम कर रही है। अगर गाँवके लोग अदालतोंके जरिये न्याय पाना चाहें तो उससे भी निश्चय ही कोई लाभ न होगा। मेरा पक्का विश्वास है, और यह विश्वास मुकदमोंके कागजातको पढ़ने के बाद बना है, कि ज्यादातर मुकदमोंमें लोगोंने अपना रुपया ही बरबाद किया है, अपनी ताकत ही घटाई है। वकीलों और रिश्वतखोरोंको इतना सारा रुपया देकर इक्के-दुक्के मामलेमें ही कोई निर्दोष आदमी कभी छूट पाया है।