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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


पुलिसमें मुख्यतः हमारे ही आदमी हैं, इनका प्रतिरोध किए बिना ही इन्हें नेक बनाया और अपने पक्षमें लाया जाना चाहिए। दया करनेके बजाय हमने अबतक उनको अनावश्यक रूपसे बदनाम ही किया है। वे तो एक कुटिल, और शर्मनाक प्रणालीके शिकार हैं। मैं नहीं मानता कि भारतीय पुलिस अपने आपमें बुरी है और सरकार उसे सुधार नहीं सकती। इसके विपरीत, यह शासन-प्रणाली ही ऐसी है कि उसमें ईमानदारसे ईमानदार आदमी भी भ्रष्ट हो जाते हैं। वह चाहती है कि उसके कार्योंकी कोई नुक्ताचीनी न हो और उसे मनमानी करनेकी छूट प्राप्त रहे। उसने अपनी प्रतिष्ठाका एक होआ खड़ा कर रखा है। वह अपनेको पूर्णतः संरक्षित और गलतीसे परे मानने लगी है।

इसलिए स्थानीय लोगोंको चाहिए कि वे सर्वत्र पुलिसके साथ मंत्रीके सम्बन्ध बनाएँ। और इसका सबसे अच्छा तरीका यह है कि वे उससे या उसके दण्डसे डरना छोड़ दें।

इस मामले में गाँव के लोगोंको यह सलाह दी जानी चाहिए कि वे इस अन्यायको भूल जायें। अगर गाँव के लोगोंको मित्रोंकी मददसे अपनी लुटी हुई सम्पत्ति मिल सके तो उसे वापस ले लेना चाहिए। उन्हें कैदकी सजा भी धीरजके साथ भुगत लेनी चाहिए। उन्हें प्रतिवादीके रूपमें अपना कोई वकील खड़ा नहीं करना चाहिए। उन्हें अदालतको सारी बात जैसी है वैसी ही बता देनी चाहिए। उनके खिलाफ गलत बातें कही जायें, या उन्हें यह ताना मारा जाये कि उनकी बातोंमें तो कोई तत्त्व ही नहीं है तो भी उन्हें यह सब सहन कर लेना चाहिए।

और यदि भविष्य में या जब भी ऐसी घटनाएँ हों, वे अपनी रक्षाके लिए तैयार रहें। इस प्रकारकी स्थिति में वे अपने शरीरकी, या सम्पत्तिकी रक्षामें चोट पहुँचानेके बजाय यदि मर्दोंकी भाँति उत्पीड़न सह सकें और अपनेको लुट जाने दें तो बहुत अच्छा होगा। यह वस्तुतः उनकी सबसे बड़ी विजय होगी। किन्तु उतनी सहनशक्ति केवल बलसे आ सकती है, दुर्बलतासे नहीं। जबतक यह शक्ति वे अपने अन्दर पैदा नहीं कर पाते तबतक उन्हें अन्यायीका सामना [शारीरिक] शक्तिसे करनेके लिए तैयार रहना चाहिए। जब पुलिसका कोई सिपाही किसीको गिरफ्तार करनेके लिए नहीं, बल्कि तंग करनेके लिए आता है तब वह अपने अधिकारका अतिक्रमण करता है। तब नागरिकका यह एक अनिवार्य कर्त्तव्य है कि वह उसे लुटेरा माने एवं उससे वैसा ही व्यवहार करे। इसलिए वह उसको लूटपाट करने से रोकने के लिए पर्याप्त शक्तिका उपयोग करे। वह अपनी महिलाओंके सम्मानकी रक्षाके लिए निश्चय ही शक्तिका डटकर प्रयोग करे। अहिंसाका सिद्धान्त कमजोरों और कायरोंके लिए नहीं है; वह तो वीर और शक्ति-सम्पन्नोंके लिए है। सबसे अधिक वीर तो वह पुरुष होता है जो मारता नहीं है, बल्कि कोई उसे मारे तो स्वेच्छासे मृत्युका वरण करता है। वह किसीको मारने से, चोट पहुँचानेसे अपना हाथ इसलिए रोकता है कि वह जानता है कि किसीको चोट पहुँचाना गलत काम है। चम्पारनके ग्रामीण ऐसे नहीं हैं। वे तो पुलिसको देखते ही भागते हैं। यदि उन्हें कानूनका भय न हो तो वे