पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 19.pdf/१५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३०
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

यदि आपको स्कूल छोड़ने में डर नहीं लगता तो स्कूल छोड़नेके बाद, मैं कहता हूँ कि ज्यों ही स्कूल और कालेज छोड़ेंगे त्यों ही, आप भारतकी स्वतन्त्रताके स्वामी और भारतकी स्वतन्त्रताके संरक्षक बन जायेंगे। आप स्वतन्त्रताके प्राथमिक फलोंका आस्वादन कर चुकेंगे। आप स्वतन्त्र जीवनकी नई पद्धतिकी नींव डाल चुकेंगे। उस नींव पर आप तत्काल नया भवन बना सकते हैं और उस नींवको ज्योंका-त्यों भी छोड़ सकते हैं। आप जबतक इन संस्थाओंमें शिक्षा पायेंगे तबतक उस नींवपर भवन कदापि न बनेगा। और इसलिए मैं आप छात्रोंसे अनुरोध करता हूँ कि आपके सामने मैंने जो तर्क रखे हैं यदि आप उनको स्वीकार करते हैं तो आप अपने स्कूलों और कालेजोंको बिना शर्त छोड़ दें। मुझे एक पत्र मिला है और वह मेरी जेबमें रखा हुआ है। मुझे यह पत्र एक छात्रने भेजा है। इसमें उसने मुझसे पूछा है कि वह कालेज छोड़नेके बाद क्या करे। उसने मुझसे यह भी पूछा है कि क्या वह असहयोग का प्रचार करता रह सकता है। मैं ऐसा मूर्ख नहीं हूँ। मैं उससे कहता हूँ कि उसे कोई प्रचार कार्य नहीं करना है, बस थोड़ा-सा अमली काम करना है। थोड़ा-सा अमली काम बहुत सारे प्रचारसे कहीं अधिक होता है। मुझे तो बिना मिलावटका शुद्ध सोना चाहिए। यदि आप इन स्कूलों और कालेजों में प्राप्त थोड़ी-सी बौद्धिक शिक्षा छोड़नेके लिए तैयार हों, इनसे प्राप्त होनेवाले बौद्धिक विकासका मोह छोड़ने को तैयार हों, तभी आप “भारतके हित में इन स्कूलों और कालेजोंको छोड़ें। याद तो कीजिए कि बोअर-युद्धमें बोअर बच्चोंने क्या किया था। याद कीजिए, कैम्ब्रिज और ऑक्सफोर्डके छात्रोंने पिछले महायुद्धके समय क्या किया था। याद कीजिए कि अरबके युवक आज क्या कर रहे हैं। सरकार उनको शिक्षा देनेका जो वचन देती है, वे उससे धोखेमें नहीं आते। उनके लिए बौद्धिक प्रशिक्षणकी अपेक्षा स्वतन्त्रता ज्यादा कीमत रखती है। यदि किसी गुलामको बौद्धिक प्रशिक्षण दिया जाये किन्तु उससे उसे स्वतन्त्रता न मिले तो बौद्धिक प्रशिक्षण उसके किस कामका? यदि आपका यह विश्वास हो कि आप इन स्कूलों और कालेजोंमें ऐसी शिक्षा पा रहे हैं जिससे भारत या इस्लाम स्वतन्त्र हो जायेंगे तो आप इन स्कूलों और कालेजोंमें बने रहिए। पर यदि आपका खयाल मेरी तरह यह हो कि इन स्कूलों और कालेजोंमें शिक्षित भारतीयोंको जो बिल्ले मिलते हैं वे गुलामीके बिल्ले हैं, तब आप बिना किसी सन्देहके कल ही इन स्कूलों और कालेजोंको छोड़ दें।

इस छात्रने मुझे एक और खबर दी है जो बहुत दुःखजनक है। वह मुझे बताता है कि बाबू विपिनचन्द्र पाल[१] ढाकामें जब मंचपर भाषण करनेके लिए खड़े होते हैं और आपसे यह कहते हैं कि आप इन स्कूलों और कालेजोंको तबतक न छोड़ें जब तक उनकी जगह नये स्कूल और कालेज स्थापित नहीं हो जाते, तब छात्र लोग सीटियाँ बजाकर उन्हें मंचसे उतार देते हैं। यह तो असहयोगकी शिक्षा नहीं है। यह भारतकी परम्परा नहीं है और इन पश्चिमी परम्पराओंसे आपका सम्बन्ध कमसे-कम रहे तो सर्वोत्तम होगा। बाबू विपिनचन्द्र पाल और मेरे विचारोंमें जमीन आसमानका अन्तर

  1. १८५८-१९३२; बंगालके शिक्षा शास्त्री, ओजस्वी वक्ता, पत्रकार, और राजनैतिक नेता।