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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पुनश्च:

इस बार तो रेवाशंकरभाई भी यात्रापर निकले हैं।

मूल गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू० ५९८४) से।

सौजन्य: राधाबेन चौधरी

 

७७. ‘गुरखा’ जहाजपर बातचीत[१]

१६ दिसम्बर, १९२०

[भारतीय सज्जनने पूछा]: तब असहयोगका तात्कालिक हेतु तो अन्यायका विरोध करना ही हुआ न?

[गांधीजी]: विरोध नहीं। शुद्धीकरण; हमारे अपने शुद्धीकरणके द्वारा विरोधियोंका शुद्धीकरण।

[अंग्रेज]: और पापसे अपनेको अलग रखना?

गां०: निस्सन्देह, यही।

अं०: तब क्या आपको ऐसा लगता है कि आप यह शुद्धीकरण थोड़ा बहुत भी कर सके हैं?

गां०: मैं आजकल देशका पर्यटन कर रहा हूँ। देशमें लोगोंको आत्मनिग्रह और स्वावलम्बनका पाठ सीखते देखकर मैं तो आश्चर्यचकित रह गया हूँ। किसान वर्गमें भी इन दोनों बातोंका विकास हो रहा है और मुझे ऐसा लगता है कि ब्रिटिश अधिकारी भी इस प्रभावसे अछूते नहीं बचे हैं, उनके मन भी निर्मल होते जा रहे हैं।

अं०: इस शुद्धीकरणके द्वारा आप अंग्रेजोंमें क्या देखना चाहते हैं? अंग्रेजोंके व्यवहारमें क्या परिवर्तन लाना चाहते हैं?

गां०: मैं ऐसी स्थिति उत्पन्न करना चाहता हूँ जिसमें प्रत्येक अंग्रेज प्रत्येक भारतीयको अपना समकक्षी माने। अंग्रेज अभिमानके शिखरपर चढ़कर बातें करता है, उसे मैं नीचे जमीनपर उतारकर यह खयाल दिलाना चाहता हूँ कि हिन्दका सामान्यसे सामान्य मजदूर भी उसके समकक्ष है। अपने किसी भी व्यवहारमें वह भारतीयकी अवगणना न करे, अपने सारे व्यवहारमें वह उसे अपना समान भागीदार समझे, मैं ऐसी स्थिति उत्पन्न करना चाहता हूँ। इससे भिन्न दूसरी किसी भी शर्तपर हिन्दुस्तान में उसके लिए स्थान नहीं है। अंग्रेज और भारतीय दोनोंमें परस्पर समतुल्य होनेकी भावनाका प्रसार हो, वे उसका साक्षात्कार करें――इतना-भर होनेसे में समझँगा कि मेरे देशको

  1. महादेव देसाईके पात्रा विवरणसे उद्धृत। जब गांधीजी ढाकासे कलकत्ता जाते हुए नारायण गंजसे गोलंडोतक जहाजमें यात्रा कर रहे थे, यह बातचीत उसी दौरान हुई थी। जिन लोगोंके साथ गांधीजीको यह बातचीत हुई उनमें से एक मित्र नामक भारतीय सज्जन थे और दूसरे मेयर नामक अंग्रेज। ये दोनों ही वैरिस्टर थे।