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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

गां०: ऐसे सब लोगोंको में निधड़क सरकारके हवाले कर दूँगा।

भा०: [दोनोंकी ओरसे] हम आपके साथ लड़ने नहीं आये हैं? आपको समइनके लिए ही आये हैं, यह तो आप जानते ही हैं। अब एक ही सवाल हम और पूछेंगे। आपके अनुयायियोंका असहयोग वैर और तिरस्कारपर प्रतिष्ठित है, यह बात सच है कि नहीं?

गां०: हाँ, मद्रासके एक अंग्रेज भाईने मुझे इस सम्बन्धमें लिखा है।

अं०: मैं आपके सिद्धान्तको समझता हूँ, लेकिन आपके अनुयायियोंकी जुबानसे तो नित नया विष झरता है।

गां०: तथापि मेरा कहना है कि उदात्त कार्य रीझ कर करो या खीझकर, उसका फल प्राप्त हुए बिना नहीं रहता। सत्य भयसे बोला जाये अथवा जानबूझकर तो भी क्या उस सत्यका परिणाम आये बिना रह सकता है?

भा०: आपका सिद्धान्त ‘पापका तिरस्कार लेकिन पापीका तिरस्कार नहीं’ है, जब कि आपके अनुयायियोंका सिद्धान्त ठीक इसके विपरीत है――‘पापीका तिरस्कार करो’, पापका तिरस्कार करनेकी कोई जरूरत नहीं।

गां०: क्या यह कहकर आप अन्याय नहीं करते? कुछ लोग ‘पाप और पापी दोनोंका तिरस्कार करते हैं।’ पापका तिरस्कार करते हैं इसीलिए तो वे इतना त्याग कर रहे हैं। बड़े-बड़े बलिदान देनेके लिए तैयार हैं। क्या सिर्फ पापीका तिरस्कार करने से इतने बलिदान किये जा सकते हैं? कभी नहीं।

अं०: आपका मूल सिद्धान्त तो पापियोंका साथ न करना है; फिर आप अपने अपवित्र साथियोंके साथ किस प्रकार काम कर सकते हैं? आप-जैसी उच्च भूमिपर प्रतिष्ठित होकर कार्य करनेवाला व्यक्ति मलिन साधनोंसे क्यों कर काम लेता है?

गां०: जरा आप सरकारको अपवित्रता और मेरे साथियोंकी अपूर्णताकी तुलना कीजिए। जरा अधिक विचार करके देखें तो आप समझ जायेंगे कि कोई भी सुधा――मैं एक सुधारक हूँ――उसे जो साधन प्राप्त होते हैं उनसे काम लेनेके लिए बाध्य है; किन्तु मलिन साधनोंसे नहीं, बल्कि अपूर्ण साधनोंसे कहिए।

भा०: हमने आज आपको बहुत तकलीफ दी, माफ कीजिएगा। में अबतक ‘असहयोग’ के विरुद्ध संघर्ष करता आया हूँ, लेकिन आज ही समझ सका हूँ कि असहयोगके जिस स्वरूपके विरुद्ध में लड़ रहा था वह, आपसे जिस असहयोगके बारेमें बातचीत हुई है, उससे भिन्न है। हम दोनों आपके आभारी हैं।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २९-१२-१९२०