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८१. अन्त्यजोंके सम्बन्धमें और विचार

मुझे दुःख है कि अन्त्यजोंको लेकर जो वाद-विवाद चल रहा है उसे ‘नवजीवन’ में भी स्थान देना पड़ा है। तथापि इसका असहकारकी सफलतासे सम्बन्ध है इसलिए ‘नवजीवन’ के पाठक इसे स्थान देनेके लिए मुझे क्षमा करेंगे। ‘नवजीवन’का कर्त्तव्य है कि उसके कार्यवाहक जिसे शुद्ध सत्य मानते हों, उसे पाठकोंके सम्मुख पेश करें।

असहकारका मार्ग जितना सरल है उतना ही विकट भी है। जिसकी समझमें आ जाये उसके लिए वह सहल है; दूसरोंके लिए विकट है। समझ न सकनेके कारण समय-समयपर उलझन होती रही है।

मुश्किलोंपर पर्दा डाले रहनेसे वे दूर नहीं हो जातीं। आ पड़नेवाली मुश्किलोंको तत्काल दूर करनेसे असहकार आसान होगा। आपसमें सहकार किये बिना हमें सर कारके विरुद्ध असहकारकी शक्ति प्राप्त नहीं होगी। छः करोड़ अन्त्यजोंको ‘ढेढ’ मानकर तिरस्कार करके हम सफल नहीं होनेवाले। जिस साम्राज्यने हिन्दू-मुसलमानोंको लड़ाया है, वह साम्राज्य अन्त्यज और दूसरे हिन्दुओंके बीच लड़ाई कराने में चूकनेवाला नहीं है।

हमें सावधान रहना चाहिए कि कोई निर्णय करते समय हम झूठी-सच्ची बातोंसे भ्रमित न हो जायें। अन्त्यजोंको विद्यापीठ[१] द्वारा मान्यता प्राप्त स्कूलोंमें स्थान दिये जानेका प्रस्ताव कोई नया नहीं है; यह तो विद्यापीठके संविधान में निहित अर्थपर जोर-भर देता है। यह अर्थ श्री एन्ड्रयूजकी प्रेरणासे नहीं किया गया है; श्री एन्ड्रयूजने जो प्रश्न पूछा था, यह प्रस्ताव उसका उत्तर है। अन्य किसी व्यक्तिने भी अगर वह प्रश्न किया होता तो उसे भी यही उत्तर मिलता।

यह प्रस्ताव मेरा अथवा किसी एक व्यक्तिका नहीं है; विद्यापीठके नियामक मण्डलका है।[२] यह बात मैं पहले ही कह चुका हूँ।

इस प्रस्तावको आपद्धर्मके रूपमें नहीं, आवश्यक धर्मके रूपमें स्वीकार किया गया है।

इसको स्वीकार करने के पीछे पश्चिमकी हवा नहीं है। ऐसा करके हिन्दू धर्मको ही अंगीकार किया गया है। मैं स्त्रयं किसी दुनियावी स्वराज्यके यज्ञमें धर्मकी आहुति नहीं देना चाहता। स्वराज्यको मैं धर्मका आवश्यक अंग समझता हूँ, इसीलिए उसके लिए जी-जानसे जुटा हुआ हूँ।

धर्मयज्ञमें तो मैं देशकी आहुति देनेको भी तैयार हो जाऊँ, ऐसी मेरी भावना है। मेरा स्वदेशाभिमान धर्माभिमानसे मर्यादित है। इसलिए अगर देशहित, धर्महितका

  1. गुजरात विद्यापीठ; जिसकी हाल ही में अहमदाबादमें स्थापना की गई थी और यह सरकारी चार्टरके बिना हुई थी; देखिए खण्ड १८, पृष्ठ ४८४-८९।
  2. देखिए “वैष्णवोंसे”, ५-१२-१९२०।

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