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८२. टिप्पणियाँ

बहनोंका उदाहरण

भारतको नारियोंसे हम बहुत सीख सकते हैं। काश कि अंग्रेज लोग तथा हममें से वे लोग जो असहयोगकी जरूरत या सामर्थ्य में विश्वास नहीं करते, भारतकी नारियाँ असहयोग के समर्थन में जो उत्साह प्रदर्शित कर रही हैं, उसे देखते। वे हर जगह सैकड़ों-हजारोंकी संख्या में इकट्ठा हुई हैं। वे परदेसे बाहर निकली हैं और उन्होंने बाहर आकर मौलाना शौकत अलीको और मुझे दुआएँ दी हैं। उन्होंने सहज ही में आन्दोलनका शुद्ध स्वरूप पहचान लिया है। उनके दिलोंपर असर हुआ है। उन्होंने अपनी हीरे-मोतीकी चूड़ियाँ, कण्ठहार और अँगूठियाँ दे दी हैं। अमीर, गरीब सभी तरहकी औरतोंने आकर हमें अपनी दुआओंके साथ मूल्यवान उपहार भी दिये हैं; मूल्यावान इसलिए कि ये उपहार सर्वथा स्वेच्छापूर्वक दिये गये। उन्होंने यह भी समझ लिया है कि भारतकी गरीब नारीकी पवित्रता चरखेके संगीत में निहित है। वे असहयोगके झंडेके नीचे घृणाके कारण इकट्ठा नहीं होतीं।

दूसरा पक्ष

परन्तु पुरुषवर्ग उतावला है और भारी भूल करता है; जैसी कि उन्होंने, पता चला है, दिल्ली और बंगालमें की है। एक ऐसे आदमीकी लाशको, जिससे तथाकथित असहयोगी लोग, (यदि वे असहयोगी थे तो) नफरत करते थे, दफनाने नहीं दिया गया। यह बहुत पापपूर्ण कृत्य था।[१] पूर्वी बंगालमें एक जगह एक उम्मीदवारपर, जो कौंसिलकी सदस्यता के लिए खड़ा हुआ था, पाखाना फेंका गया और एक मतदाताके कान इसलिए काट लिये गये कि उसने मत देनेका दुस्साहस किया था। ये बहुत बुरे काम हैं।[२] ये तो केवल हमारे अपने ही उद्देश्यको विफल करनेके तरीके हैं। असहयोग केवल अंग्रेजों और सरकारी अधिकारियोंकी हदतक ही अहिंसात्मक नहीं है। हमारे देशभाइयोंके सन्दर्भमें भी उसे उतना ही अहिंसात्मक होना चाहिए। कोई सहयोगी भी कर्म, वचन और विचारकी स्वतन्त्रताका उतना ही हकदार है, जितना कि बड़े से बड़ा असहयोगी। असहयोग सभी तरहकी गुलामीके विरुद्ध है। अतएव जो असहयोगी हिंसाका सहारा लेता है, वह अपने ही उद्देश्यमें बाधा डालता है। यह अपने उद्देश्यमें विश्वासकी कमीका निश्चित चिह्न है।

और भी दमन

पता नहीं, दिल्लीकी वारदातके परिणामस्वरूप या अन्य किसी कारणसे, दिल्लीमें राजद्रोहात्मक सभा अधिनियम फिर लागू हो गया है और कुछ स्वयंसेवक-दस्ते भंग

  1. देखिए पृष्ठ ९९, पाद-टिप्पणी १।
  2. ये दोनों घटनाएँ विधान परिषदोंके चुनावोंके दौरान नवम्बर १९२० में हुई थीं।