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टिप्पणियाँ

और फिर मजदूरोंको भी साधु-भाषा समझने के लिए थोड़ी मेहनत कर लेनी चाहिए ।जिन शब्दोंका अर्थ समझ में नहीं आता उनका अर्थ उन्हें दूसरोंसे समझ लेना चाहिए।

हमारी गुजराती भाषाका प्रयोग तीन वर्गोंके लोग करते हैं: हिन्दू, मुसलमान और पारसी। तीनों ही भाषाको अलग-अलग रूप दिया है। हम परस्पर एक-दूसरेसे इतनी दूर-दूर रहते हैं कि तीनों एक-दूसरेकी भाषासे परिचित नहीं हो पाते। पारसियोंकी लिखी हुई पुस्तकोंको हिन्दू कदाचित् ही पढ़ते हों। यह सच है कि उनमें खबरदार[१] जैसे लेखकोंकी कृतियाँ भी मिलती हैं जिन्हें सब लोग पढ़ते हैं; लेकिन ये अपवाद-रूप हैं। सामान्यतः पारसी लेखक पारसियोंके लिए, मुसलमान लेखक मुसलमानोंके लिए और हिन्दू लेखक हिन्दुओंके लिए लिखता है। जब हममें परस्पर ऐक्यकी भावना पैदा होगी और मुख्यतः अपने स्कूलोंमें अपनी गुजराती भाषाके माध्यमसे शिक्षा लेना शुरू करेंगे तथा गुजराती लोग गुजराती भाषाको उचित मान देंगे तब हम सब एक भाषामें लिखने लगेंगे। इस बीच ‘नवजीवन’ की भाषा जितनी हो सके उतनी सादा रखनेका प्रयत्न किया जाता है, लेकिन कुछ-एक ऐसे शब्दोंका प्रयोग किये बिना काम नहीं चलता, सम्भव है जिनका अर्थ, मुसलमान पाठक तुरन्त न समझ सकें। उन्हें वैसे शब्दोंको सीख लेनेकी थोड़ी कोशिश करनी चाहिए।

राष्ट्रभाषा

भाषापर विचार करते समय मुझे हिन्दुस्तानीका अपना अनुभव याद आता है। मेरी हिन्दुस्तानी में व्याकरण-सम्बन्धी दोष बहुत होता है। तथापि लोग मेरी हिन्दुस्तानी प्रेमपूर्वक सुनते हैं। अनेक स्थानोंपर मैंने विद्यार्थियोंसे कहा है कि मैं अंग्रेजीमें बोलने के लिए तैयार हूँ; तब भी वे लोग मेरा हिन्दुस्तानी में ही बोलना पसन्द करते हैं। ऐसे प्रसंग विशेष रूपसे तीन जगह――इलाहाबाद, पटना और नागपुरमें आये हैं। मेरे वैकल्पिक प्रस्तावपर भी विद्यार्थियोंन हिन्दुस्तानी में ही बोलनेकी माँग की। सब लोगोंकी धारणा थी कि ढाका में अंग्रेजी बोले बिना मेरा निस्तार नहीं होगा; लेकिन वहाँ भी लोगोंने हिन्दुस्तानी में ही बोलनेकी माँग की और मेरे हिन्दुस्तानी भाषणको ध्यानपूर्वक सुना। मैं देखता हूँ कि मेरे जैसे सार्वजनिक कार्य करनेवाले लोगोंके लिए, जो हिन्दी अच्छी तरह बोल लेते हैं, सारे हिन्दुस्तान में कार्य करनेका मार्ग सरल हो जाता है। सिर्फ बंगाल और मद्रास प्रदेश में ही थोड़ी मुश्किल होती है। जैसे-जैसे सामान्य वर्ग में जागृति होती जायेगी वैसे-वैसे सार्वजनिक वक्ताओंका अपने-अपने प्रान्तोंसे बाहर हिन्दुस्तानी बोले बिना काम नहीं चलेगा, यह बात अनुभवसे सिद्ध होती जाती है। गुजरातके उन वक्ताओंके लिए, जो सारे हिन्दुस्तान में काम करना चाहते हों, हिन्दुस्तानी सीखना नितान्त आवश्यक है।

स्त्रियों में जागृति

जो बात भाषापर लागू होती है वही बात स्त्रियोंपर भी लागू होती है। अपनी मातृभाषा और राष्ट्र-भाषाका तिरस्कार करके हमारा शिक्षित वर्ग जनतासे दूर जा पड़ा है। उसी तरह हमने स्त्री-समाजका भी तिरस्कार किया है। उनका राष्ट्रीय-

  1. अदेशर फरामजी ‘खबरदार’, एक पारसी कवि।