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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जीवन में कोई भाग नहीं है, ऐसा हम निश्चित रूपसे मान बैठे हैं। इसीसे उन्होंने आजतक सार्वजनिक जीवन में कभी कोई भाग नहीं लिया। भाषाके सम्बन्धमें हमने यही माना है कि अंग्रेजी शिक्षा पाये बिना, हाईस्कूलों और कालेजों में पढ़े बिना हमें देशसेवा करना आ ही नहीं सकता। सरकारने यह विचार हमारे मस्तिष्कोंमें भर दिया है और अब उसे निकालने में हमें दिक्कत महसूस होती है। जबतक बी० ए० पास न कर लें तबतक सरकारी नौकरी नहीं मिलती, जबतक नौकरी नहीं मिलती तबतक सत्ता नहीं मिलती और जबतक सत्ता हाथ नहीं आती तबतक हमें चैन नहीं पड़ता। फलस्वरूप हमने मान लिया है कि अंग्रेजी शिक्षाके बिना हम देशसेवा नहीं कर सकते। इतनी शिक्षा प्राप्त की और हम ‘साहब’ बन गये। जैसे ये विदेशी ‘साहब’ आम जनताको अस्पृश्य मानते हैं वैसे ही इन देशी साहबोंने भी उसे अस्पृश्य माना। यही कारण है कि अबतक जनसमाजन राष्ट्रीय जीवनकी प्रगतिमें बहुत कम भाग लिया है।

मैं हजारों बहनोंसे मिला हूँ। उनसे मैंने स्वराज्यके बारेमें बातचीत की है। उनसे मैंने पंजाबके सम्बन्धमें बातचीत की, उनमें स्वदेशीका प्रचार किया, और उन्हें यह समझाया कि स्वराज्य-प्राप्तिके लिए असहयोग ही आज एकमात्र धर्म क्यों है। वे बहनें यह सब समझ गईं। ये बहन कोई अंग्रेजी पढ़ी-लिखी नहीं हैं। सभी धनिक और निर्धन, लेकिन विशेष रूप से अपढ़ बहनोंने आशीर्वाद दिया और अपने जेवरात भेंट किये। किसीन हीरे-मोती जड़ी चूड़ियाँ दीं, किसीन मोतियोंकी माला दी, किसी ने हीरेकी अंगूठी दी और किसीने अपनी सोनेकी जंजीर दी। सोनेकी अँगूठियोंकी तो कोई गिनती ही नहीं। गरीब बहनोंने अपनी चाँदीकी पायलें और अन्य गहने दिये। गुजरात, दक्षिण, संयुक्त प्रान्त, बिहार, बंगाल और मध्यप्रान्त में मैंने बहनोंसे बात की और बातकी-बात में लगभग पचास हजार रुपयेके आभूषण और नकद रुपये प्राप्त हुए। ये आभूषण किसीन संकोचवश नहीं दिये; बल्कि सोच-समझकर और यह प्रतिज्ञा करके दिये कि वे स्वराज्य मिलनेतक नये आभूषण नहीं बनवायेंगी। तब मैं यह कैसे न मानूं कि जहाँ स्त्रियों में ऐसी जागृति आ गई है वहाँ स्वराज्य एक वर्ष में मिलकर ही रहेगा? और फिर यह तो शुरुआत है। स्त्रियाँ रुपया देने के लिए तैयार होकर नहीं आई थीं, अनेक स्त्रियाँ अपने पतियोंसे सलाह करके नहीं आई थीं, इसपर भी जब इतना पैसा मिला है तब मैं कैसे विश्वास न करूँ कि स्त्रियोंके आभूषणोंके थोड़ेसे त्यागसे ही हिन्दुस्तान में नई पाठशालायें खोली जा सकती हैं और चलाई जा सकती हैं।

पारसी रुस्तमजीका[१] दान

नेटालके प्रसिद्ध सेठ रुस्तमजी जीवनजीने मुझे पत्र[२]लिखा है। उन्होंने लिखा

  1. दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रह आन्दोलनमें गांधीजीके एक प्रमुख सहयोगी ।देखिए खण्ड ८, ९ और १०।
  2. पत्र यहाँ नहीं दिया जा रहा है। इसमें चार स्थानोंपर स्कूलोंकी इमारतें बनानेके लिए चालीस हजार रुपये देनेकी बात कही गई थी, बशर्ते कि स्थानीय जनता उनका संचालन-भार अपने ऊपर ले ले।