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९०. भाषण: विषय समितिको बहसकी समाप्तिपर[१]

२८ दिसम्बर, १९२०

मेरे सामने साम्राज्यमें बने रहने से सम्बन्धित मूल प्रस्ताव और उसमें से गणराज्य शब्द निकाल देनेसे सम्बन्धित संशोधन और अन्य विविध संशोधन मौजूद हैं। मैं अब भी कहता हूँ कि अगर हमारी शिकायतें दूर नहीं की जाती तो हमें अंग्रेजोंसे सम्बन्ध तोड़ लेने चाहिए। संविधान में परिवर्तन करनेका कारण यही है। यदि हमारी शिकायतें दूर कर दी जाती हैं तो परस्पर बातचीत के द्वारा स्वराज्यके सम्बन्धमें कोई-न-कोई समझौता किया जा सकता है। इसमें छल-प्रपंचका नाम भी नहीं है। कांग्रेसके ध्येयको जिस रूपमें प्रस्तुत किया गया है उससे तो दोनों पक्षोंके लिए द्वार खुला रहता है। और अगर इसका नाम छल-प्रपंच है तो हमें इसका स्वागत करना चाहिए। वैध और शान्तिपूर्ण साधन कांग्रेसके ध्येयकी नींव है। यूरोपीयोंसे हमें स्पष्ट कह देना चाहिए कि हमारे देश में उनका जीवन पूरी तरह सुरक्षित है। उनकी तोपें आदि विनाशके साधन नहीं, हमारे लिए सिर्फ खिलौने हैं। इस समय तो हिंसाकी कोई भी सम्भावना नहीं है। अबतक हम केवल शिक्षित-वर्गसे ही सहयोग लेते थे; अब हमें जनतासे काम लेना है। अनुचित साधनोंसे लिया जा सकनेवाला स्वराज्य भी अनुचित ही है। यदि हम इस्लामको अपमानसे मुक्त कराना चाहते हैं तो हमें शान्ति बनाये रखनी चाहिए, नहीं तो यह आन्दोलन समाप्त हो जायेगा। अगर हम हिंसा करने लगें तो कांग्रेस गैर-कानूनी संस्था कही जाने लगेगी और उसे कुचल दिया जायेगा। हमें अपने लक्ष्यकी प्राप्ति सम्मानपूर्ण साधनोंसे करनी चाहिए। ‘उत्तरदायी सरकार’ शब्द तो भुलावेमें डालनेवाले शब्द हैं। हिन्दुस्तान में तानाशाही कभी नहीं आ सकती; क्योंकि हमारा स्वराज्य तो हिन्दुस्तानकी जनताका स्वराज्य होगा। यदि भारतके लोगोंको ही तानाशाहीकी जरूरत होगी तो उसे कोई रोक नहीं सकेगा।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २-१-१९२१
 
  1. कांग्रेसके सिद्धान्त सम्बन्धी प्रस्तावके मसविदेपर।