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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

प्राप्त करनेकी उम्मीद रखता हूँ, उसके शेष नौ महीनोंमें हम इन दोनों अन्यायका परिशोधन करवा लेंगे और भारतकी जनताकी इच्छा के अनुसार स्वराज्य स्थापित होते भी देखेंगे।

लेकिन इन नौ महीनोंके अन्तमें इस वर्तमान सरकारकी क्या स्थिति होगी?

आप देखेंगे कि शेर और बकरी एक ही घाटपर पानी पी रहे हैं।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २९-१२-१९२०
अमृतबाजार पत्रिका, ५-१-१९२१
 

९३. टिप्पणियाँ

‘घृणाका सिद्धान्त’?

‘इंडियन इंटरप्रेटर’ के पास असहयोगके खिलाफ कहनेको बहुत कुछ है। बड़ा अच्छा हो, अगर सम्पादक सार्वजनिक प्रश्नोंपर विचार व्यक्त करने से पहले उन्हें समझनेकी कोशिश करें। ‘इंडियन इंटरप्रेटर’ ईसाइयोंकी धार्मिक पत्रिका है। किसी भी धार्मिक विषयोंसे सम्बन्धित एक जिम्मेदार पत्रिकासे आशा की जाती है कि वह जिन विषयोंका विवेचन करे उनकी उसे पूरी जानकारी हो।

‘इंटरप्रेटर' लिखता है: “भारत कभी सार्वजनिक घृणाके बलपर एकता हासिल नहीं कर सकता। और जहाँतक कोई तटस्थ पर्यवेक्षक समझ सकता है, आदर्शवादी श्री गांधीने इसी उपायका सहारा लिया है।”

श्री स्टोक्स[१], जिन्होंने एक तटस्थ पर्यवेक्षककी तरह आन्दोलनका अध्ययन करनेकी कोशिश की है, कहते हैं कि वह घृणापर आधारित नहीं है। मैं स्वयं भी यही बात कह चुका हूँ । लेकिन पूर्वग्रह कठिनाईसे खत्म होते हैं। यह भाग-दौड़का जमाना है और इस भाग-दौड़ में आधुनिक पत्रकारिताका बहुत बड़ा योगदान है। इस ज़मानेमें लोग अपर्याप्त तथ्योंके आधारपर जल्दबाजीमें निष्कर्ष निकाल लेते हैं, और इस तरह, अनजाने ही सही, अपने पूर्वग्रहोंको और भी पुष्ट करते हैं।

एक सामान्य खतरा

एक सामान्य खतरे, सामान्य कष्टने हिन्दुओं और मुसलमानोंको एक सूत्र में बांध दिया है। मैं कष्टसे अधिक पावन बनानेवाली कोई अन्य चीज नहीं जानता। संकट अजनबियोंको भी सहचर बना देता है और हम तो अजनबी नहीं, पड़ोसी हैं, एक ही धरतीके बेटे हैं, जो संकटके कारण एक-दूसरेके और भी समीप आ गये हैं।

  1. इन्होंने भारतको ही अपना देश बना लिया था और असहयोगमें खास दिलचस्पी रखते थे; देखिए अगला शीर्षक।