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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तौरसर अन्यायपूर्ण है, उस राज्यकी सत्ता स्वीकार करने की अपेक्षा तो यह अधिक पौरुषपूर्ण मार्ग होगा।

परन्तु मैं ऐसी किसी निराशापूर्ण सम्भावनाकी कल्पना नहीं करता। यदि अहिंसा के रास्ते से यह आन्दोलन सफल होता है――और श्री स्टोक्सने अपने लेखका प्रारम्भ ही इसी कल्पनाके आधारपर किया है――तो अंग्रेज चाहे यहाँ रहें या यहाँसे चले जायें, वे जो कुछ भी करेंगे मित्रोंकी तरह ही करेंगे, और जैसा दो साझेदारों के बीच किसी अच्छे समझौते में होता है, उसी तरह करेंगे। मैं अभीतक मानव-प्रकृतिकी नेकीमें विश्वास करता हूँ, चाहे वह मानव अंग्रेज हो या कोई और। इसलिए मैं ऐसा नहीं मानता कि अंग्रेज यहाँसे “रातोंरात” चले जायेंगे।

और फिर, क्या मैं गोरखों तथा अफगानोंको ऐसा चोर-डाकू मानूं, जिनमें कोई सुधार हो ही नहीं सकता और जिनपर पावनकारी शक्तियाँ कोई असर डाल ही नहीं सकतीं? मैं तो ऐसा नहीं मान सकता। यदि भारत पुनः अपनी आध्यात्मिकताकी राहपर चलने लगता है तो उसका असर पड़ौसी जातियोंपर भी होगा। वह इन मेहनती किन्तु निर्धन जातियोंके कल्याण-कार्यमें भाग लेगा और यदि जरूरी हुआ तो मदद भी देगा किसी भयसे नहीं बल्कि पड़ौसीके कर्त्तव्यकी भावनासे प्रेरित होकर। ब्रिटेनके साथ-साथ वह जापानसे भी निपट चुकेगा। जो चीजें यहाँ तैयार की जा सकती हैं, यदि भारत, वैसी एक भी विदेशी चीजका इस्तेमाल करना पाप समझने लग जाता है तो जापान भारतपर कभी आक्रमण नहीं करना चाहेगा। भारत अपने खाने-भरको पर्याप्त अन्न पैदा कर लेता है और भारतके स्त्री-पुरुष बिना कठिनाईके इतना कपड़ा तैयार कर सकते हैं कि वे नंगे न रहें और गर्मी-सर्दीसे अपनेको बचा सकें। हमपर आक्रमण तभी किया जायेगा जब हम दूसरे राष्ट्रोंके साथ इस तरहका व्यवहार रखेंगे जैसे हम उनपर निर्भर हों। इस तरह के व्यवहारसे उनका लोभ बढ़ेगा। हमें हर देशसे स्वतन्त्र रहना सीखना चाहिए।

इसलिए चाहे अन्ततोगत्वा हमें सफलता हिंसासे मिले या अहिंसासे, मेरी रायमें उसके बादके आसार उतने बुरे नहीं हैं, जितने कि श्री स्टोक्स सोचते हैं। मेरी रायमें, ऐसे किसी परिणामकी कल्पना नहीं की जा सकती जो हमारी आजकी हीन और असहाय अवस्थासे अधिक बुरी हो। और निर्भयता तथा विश्वासके साथ असहयोग और त्यागके खुले और सम्माननीय कार्यक्रमको, जिसे हमने अपने लिए तैयार किया है, अपनाने से ज्यादा अच्छा और कोई काम हम नहीं कर सकते।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २९-१२-१९२०