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९५. जाति बनाम वर्ग

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, और इसलिए उसे सामाजिक संगठनका कोई-न-कोई तरीका निकालना ही पड़ता है। हमने अपने देश भारतमें जाति-व्यवस्था विकसितकी है और यूरोपवालोंने वर्ग-व्यवस्था की है। लेकिन इनमें से किसी में वह संहति और स्वाभाविकता नहीं है, जो परिवारमें पाई जाती है, क्योंकि परिवार शायद एक ईश्वर-न-कोई तरीका निकालना ही पड़ता है। हमने अपने देश भारतमें जाति-व्यवस्था विकसित की है और यूरोपवालोंने वर्ग-व्यवस्था की है। लेकिन इनमें से किसी में वह संहति और स्वाभाविकता नहीं है, जो परिवारमें पाई जाती है, क्योंकि परिवार शायद एक ईश्वर-प्रदत्त संस्था है। अगर जाति-प्रथाने कुछ बुराइयोंको जन्म दिया है तो वर्ग-व्यवस्थाने भी उससे कुछ कम बुराइयोंको जन्म नहीं दिया है।

अगर वर्ग-व्यवस्था कुछ सामाजिक मूल्योंको कायम रखने में सहायक होती है तो जाति-प्रथा भी इस दिशा में, उससे अधिक नहीं तो उसके बराबर ही सहायक है। जाति-प्रथाकी खूबी इस बातमें है कि इसका आधार धन नहीं है। इतिहास साक्षी है कि दुनिया में पैसा सबसे बड़ी विघटनकारी शक्ति है। शंकराचार्य कह गये हैं, धनकी कलुषता पारिवारिक सम्बन्धोंकी पवित्रताको भी सुरक्षित नहीं रहने देती। जाति-प्रथा परिवारके सिद्धान्तका विस्तारमात्र है। दोनोंकी संचालक शक्ति रक्त सम्बन्ध और वंश-परम्परा ही हैं। पाश्चात्य वैज्ञानिक यह सिद्ध करनेकी कोशिश में लगे हुए हैं कि वंश-परम्परा एक भ्रम मात्र है, और जो कुछ है वह वातावरण ही है। बहुत-से देशोंके पुराने अनुभव इन वैज्ञानिकोंके निष्कर्षोंको गलत सिद्ध कर देते हैं। लेकिन अगर वातावरणके सिद्धान्तको स्वीकार भी कर लिया जाये तो यह आसानी से सिद्ध किया जा सकता है कि उपयुक्त वातावरण बनाये रखने और विकसित करने में वर्गसे कहीं अधिक सहायक जाति हो सकती है। आंग्ल-सैक्सन जातिके लोग स्वभावसे ही ऐसे होते हैं कि वे अपने दृष्टिकोणके अलावा किसी औरका दृष्टिकोण समझ ही नहीं पाते। इसलिए जो भी चीज उनकी प्रकृतिके विरुद्ध जाती है, उसके प्रति उनका तीव्र विरोध करना आसानीसे समझा जा सकता है। लेकिन भारतीयोंको――चाहे वे हिन्दू हों या ईसाई――इतना तो समझ ही सकना चाहिए कि जाति-प्रथाके पीछे कोई अहंकारपूर्ण श्रेष्ठताकी भावना नहीं है, यह आत्मसंस्कारकी विभिन्न प्रणालियोंका एक विभाजन मात्र है। यह सामाजिक संस्थिति और प्रगतिके बीच तालमेल बनाये रखनेका सबसे अच्छा तरीका है। जैसे परिवारकी भावना एक-दूसरेको प्यार करने-वाले और परसर रक्त-सम्बन्ध तथा अन्य सम्बन्धोंसे बँधे लोगोंको एक करती है, वैसे ही जाति भी एक विशेष ढंगसे शुद्ध जीवन बितानेवाले परिवारोंको (न कि एक खास जीवन-स्तर, यानी एक खास आर्थिक-जीवन-स्तरवाले परिवारोंको) आपसमें एक करनेकी कोशिश करती है। यह जो नहीं करती वह यह है कि अमुक परिवार किस विशेष जातिका है, इस बातका निर्णय किसीकी सनकपर या चन्द व्यक्तियों के पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोणपर नहीं छोड़ देती। यह वंश-परम्पराके सिद्धान्त में विश्वास करती है और चूँकि यह मात्र एक रहन-सहनकी प्रणाली है, इसलिए यह ऐसा मानकर नहीं