पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 19.pdf/२०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१८०
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

चलती कि अगर कोई व्यक्ति या परिवार अपने रहन-सहनका ढंग अच्छा बनानेके लिए उसमें कुछ परिवर्तन करके भी उस समुदायमें बना रहे तो इसमें कोई बड़ा अन्याय हो जायेगा। जैसा कि हम सभी जानते हैं, सामाजिक जीवनमें परिवर्तन बहुत धीरे-धीरे आता है, और इस प्रकार जाति-व्यवस्था में, दरअसल, इस बातकी छूट रहती है कि जीवन-पद्धतिमें जो परिवर्तन आयें उनके अनुसार नये समुदायोंका गठन किया जाये। लेकिन ये परिवर्तन चुपचाप और बहुत सहज तरीकेसे होते हैं ठीक वैसे ही जैसे बादलोंके आकार में होते रहते हैं। मानव समाजकी इससे अधिक सामंजस्यपूर्ण किसी व्यवस्थाकी कल्पना करना कठिन है।

जाति उच्चता या नीचताका बोधक नहीं है। यह तो अलग-अलग दृष्टिकोणों और तदनुरूप जीवन-पद्धतियोंकी स्वीकृति-मात्र है। इस बातसे इनकार नहीं किया जा सकता कि जाति प्रथामें एक प्रकारकी श्रेणियाँ बन गई हैं, लेकिन इसे ब्राह्मणोंका काम नहीं कहा जा सकता। जब सभी जातियाँ जीवनके एक सामान्य लक्ष्यको स्वीकार करके चलती हैं तो श्रेणियाँ बन जाना अवश्यम्भावी है, क्योंकि सभी जातियाँ उस आदर्शको समान रूपसे चरितार्थं नहीं कर सकती। अगर सभी जातियाँ मानें कि निरा- मिष भोजन सामिष भोजनसे अच्छा है, तो जो जाति निरामिष भोजी है उसे बाकी सभी जातियाँ ऊँची नजरोंसे तो देखेंगी। भारत में कुछ उपजातियाँ भी हैं, जो सदासे एक-दूसरे की समकक्षी रही हैं, लेकिन कभी भी उनका आपस में रोटी-बेटीका सम्बन्ध नहीं रहा है। जैसे हिन्दू और मुसलमान अलग-अलग धर्म माननेके कारण अपनेको एक-दूसरेसे नीच नहीं समझते, या जैसे दक्षिण भारतमें कोई ब्राह्मण या लिंगायत एक साथ खान-पान नहीं करता, उसी तरह सभी जातियाँ अपने खान-पानका सम्बन्ध अपनी-अपनी जाति में ही सीमित रख सकती हैं। दूसरी जातियोंने ब्राह्मणों या वैष्णवोंके खान-पानके स्तरको सबसे अच्छा मानकर ही तो “पवित्रतर” जातियोंके हाथों दिया गया भोजन खाना स्वीकार किया है।

स्पर्श, पीना, खाना और विवाह――ये निजी मामले हैं। लेकिन किसीका स्पर्श करने से इनकार करके तो आप लगभग उससे किसी तरहका सम्बन्ध रखनेसे ही इन-कार कर देते हैं। इस तरह उसके लिए सामाजिक प्रगतिके सारे सुधार अलभ्य हो जाते हैं। उदाहरण के लिए स्पृश्य जातियोंके सभी लोग कथा-कीर्तन में शामिल हो सकते हैं। वे मन्दिरोंमें जा सकते हैं और इस तरह धर्म-कर्म तथा कला आदिकी मुफ्त शिक्षा पा सकते हैं। मन्दिरोंमें स्पृश्य जातियोंके सभी लोग स्नेह और सेवा तथा सभ्यताके वरदानोंका परस्पर आदान-प्रदान करते हैं। लेकिन ‘अस्पृश्य’ लोग सहज ही इन सभी लाभोंसे वंचित हो जाते हैं। कई स्थानों में वे गांव से बाहर रहने को मजबूर होते हैं, और इस तरह उनके जान-मालको भी सुरक्षा नहीं मिल पाती। जहाँतक श्रम के सामाजिक विभाजनकी बात है, वे समाजके लिए एक सबसे महत्वपूर्ण काम करते हैं, लेकिन जातियोंके पारस्परिक सहयोग और सम्बन्धसे जिस महान सामाजिक जीवनका विकास होता है, उसके वरदानोंसे वे वंचित रह जाते हैं। अस्पृश्यताने “दलित” वर्गोंको हिन्दू समाजका एक सर्वथा उपेक्षित अंग बना दिया है। खान-पानके सवालका