कोई सामाजिक महत्व नहीं हैं, या नहीं होना चाहिए। यह तो मात्र शारीरिक भूखकी तुष्टि दूसरी ओर खान-पान सम्बन्धी निषेध इन्द्रियोंको संयमित रखनेका एक तरीका है। खान-पानके सम्बन्धमें से भ्रातृत्व-भावको कभी कोई खास उत्तेजन मिलते नहीं देखा गया है। लेकिन इस सम्बन्धमें संयम बरतनसे इच्छा शक्तिके विकासमें और कुछ सामाजिक मूल्योंको कायम रखने में बड़ी सहायता मिली है।
- [अंग्रेजीसे]
- यंग इंडिया, २९-१२-१९२०
९६. विद्वान नरसिंहरावके प्रति
गुजरातके प्रसिद्ध विद्वान नरसिंहरावने[१] जो खुला पत्र लिखा है वह अनायास ही मेरी दृष्टि में आ गया। मुझे समाचारपत्र पढ़ने का समय कदाचित् ही मिल पाता है और यात्रा के दौरान समाचारपत्र मिलते भी कभी-कभी ही हैं, अतएव में प्राय:ऐसे लेखोंको पढ़े बिना रह जाता हूँ।
अगर मैं उपरोक्त पत्र न पढ़ता तो ठीक न होता। श्री नरसिंहरावने अत्यन्त प्रेमभाव और निर्मल हृदयसे यह पत्र लिखा है। यह में स्पष्ट देख सकता हूँ कि मेरी वर्तमान प्रवृत्तिसे उन्हें दुःख हुआ है। उनका पत्र पढ़कर दूसरोंको भी उन्हीं जैसा लग सकता है। कुछ विस्तारके साथ कह कर भी अगर मैं इस दुःखका निरा करण कर सकूँ तो मुझे प्रसन्नता होगी। मैं पत्रका उत्तर देनेका प्रयत्न करता हूँ।
नरसिंहरावजीका पत्र इस एक मान्यतापर आधारित है कि जिस सात्विक और धार्मिक भावनाके दर्शन उन्होंने मुझमें सन् १९१५में और उसके बाद भी किये थे। वे उन्हें आज दिखाई नहीं पड़ते। उनकी धारणा है कि आज मैं राजनीतिके सागरमें गोते खा रहा हूँ और मोहमें पड़ा हुआ हूँ।
मेरी आत्मा कहती है कि मैं जैसा १९१५में था वैसा ही आज भी हूँ। मेरी धर्म और न्यायवृत्ति आज [पहलेसे] अधिक जागृत है।
मुझे आशंका है कि नरसिंहराव मेरे भूतपूर्व जीवनसे अपरिचित हैं। मैंने अपना सारा जीवन राजनीतिमें ही व्यतीत किया है। मैं धार्मिक प्रवृत्तिको राजनीतिक प्रवृत्तिसे भिन्न नहीं मानता। मैंने सदा “राजनीति में धर्मवृत्तिका समावेश”[२] करनेके गोखलेके मन्त्रको ठीक माना है, और उसपर यथाशक्ति अमल किया है।
सरकारके विषय में में जिन विशेषणोंका प्रयोग करता हूँ वैसे विशेषणोंका प्रयोग मैंने दक्षिण आफ्रिका में सत्याग्रह युद्धके समय किया था। मैंने कभी नहीं माना कि उनका उपयोग करते समय मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी। कुछेक अंग्रेज मित्र अवश्य