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विद्वान नरसिंहरावके प्रति

है। अब मैं मानता हूँ कि अंग्रेजी-राज्यमें जितनी शैतानियत है उतनी कदाचित्जर्मनोंमें भी नहीं है। मेरी यह मान्यता गलत हो तो भी दोनों कमसे-कम एक जैसे तो अवश्य हैं।

तुलसीदासने रावण-राज्यकी जिन-जिन विशेषताओंका वर्णन किया है वे सबकी सब अंग्रेजी राज्यपर चरितार्थ होती हैं, इसीसे मैं इसे रावण-राज्य कहता हूँ। मेरे इस कथनमें कोई रोष नहीं है, “पुण्यप्रकोप” भी नहीं है। यह तो शान्तचित्त हो अच्छी तरह से सोच-विचारके बाद निकाला हुआ निष्कर्ष है। तथापि प्रत्येक अंग्रेज अथवा अंग्रेज अधिकारी राक्षस है, मेरे कहनेका आशय यह नहीं है। फिर भी प्रत्येक अधिकारी राक्षसी तन्त्रको चलानेवाला होनेके कारण जाने-अनजाने अन्यायका, दगाका औरअत्याचारका साधन बन जाता है। ऐसी मेरी मान्यता होनेके बावजूद अगर मैं इसे छिपाता हूँ तो कहा जायेगा कि मैंने सत्यका अनादर किया। चोरको चोर और पापीको पापी कहने में अविवेक नहीं है और न ही यह बैल हाँकनेवाले किसान द्वारा दी जानेवाली गालीके समान [बुरी आदत ही ] है। इसके विपरीत अगर यह बात शुद्ध मनसे कही गई हो तो यह प्रेमकी सूचक हो सकती है।

यदि मैंने इस जीवनमें किसी भी वस्तुका अनन्य दृढ़ताके साथ सेवन किया है तो वह है अहिंसा, सत्य और ब्रह्मचर्यका। इन तीनोंका पालन करना कितना कठिन है, इसे मेरी अन्तरात्मा ही जानती है। और मेरी मान्यता है कि मैंन इन तीनोंका कर्म और वचनसे अच्छी तरह पालन किया है। मेरे मन में क्रोधका भाव कभी उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा कहूँ तो यह असत्य भाषण होगा; मनमें विषय वासना नहीं जगी ऐसा कहूँ तो पापी बनता हूँ; तथापि मेरी मान्यता है कि अगर इन तीनों वस्तुओंका मन, वचन और कर्मसे सर्वांग पालन करने की पूरी-पूरी शक्ति मुझमें होती तो नरसिंहरावके मनमें जिस संशयका उदय हुआ वह कदापि न होता। इतना कहने के बाद भी मैं शपथपूर्वक कह सकता हूँ कि मैं जनरल डायरका लेशमात्र भी बुरा नहीं चाहता, न उन्हें उपदेश देनेकी मुझे कोई इच्छा ही है। अगर वे बीमार पड़ जायें तो मैं प्रेमपूर्वक उनकी तीमारदारी करूँ। लेकिन अपने पैसे में से उन्हें पेन्शन देकर उनके पापमें मैं कभी भी भागीदार नहीं बन सकता। उनके पाशविक कृत्यको मैं कम महत्व दूं यह नहीं हो सकता। उनका कृत्य पैशाचिक था, इस सम्बन्धमें मुझे जरा भी शंका नहीं है। उनके कृत्यको अंग्रेजोंने “विचारदोष” मानकर उनके पापको अपने ऊपर ओढ़ लिया है।

यीशुने अपने युगको ‘सर्पयुग’ कहा था सो कोई क्रोध में नहीं कहा था। जहाँ सच बोलते हुए सब लोग डरते थे वहाँ यीशुने सच बोलनेका दायित्व अपने ऊपर लेकर स्पष्ट भाषा में हर तरह के दम्भ, दर्प और झूठका वर्णन करके निर्दोष व्यक्तियोंको उनसे सावधान किया उन्हें और बचाया था। महात्मा बुद्ध जब भेड़के बच्चेको अपने कन्धे-पर उठाकर उस स्थानपर पहुँचे जहाँ अत्याचारी ब्राह्मण पशुवध कर रहे थे तब उन्होंने उन लोगोंको जिस भाषामें सम्बोधित किया वह भाषा कोमल नहीं थी, फिर भी वह उनकी आत्मा के प्रेमसे सराबोर थी। उनकी तुलनामें मैं कौन हूँ? तिसपर भी इसी