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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जीवनमें प्रेमकी हदतक उनकी बराबरी करनेकी अभिलाषा रखता हूँ। इसके लिए पाठक मुझे उद्धत मानेंगे। श्री नरसिंहरावके ही हमनाम गुजरातके नरसिंह मेहता मेरे परम आदर्श हैं। उनका प्रेम बुद्धके प्रेमसे कुछ कम नहीं था।

सम्भव है कि मैं भूल कर रहा होऊँ, अंग्रेजोंके प्रति अन्याय कर रहा हूँ अथवा इतिहासको मैंने गलत समझा हो। लेकिन मेरी प्रवृत्ति वैरसे भरी हुई है अथवा वह कम धार्मिक है, यह बात कतई नहीं है। जो मित्र भ्रान्तिमें पड़कर मेरी ओरसे सफाई देना चाहते हैं, उनसे मेरी प्रार्थना है कि पहले वे मुझे अच्छी तरह जान लें। मैं निर्मल बनने और रहनेका प्रयत्न करता हूँ; किन्तु भूलसे भरा हूँ और भूल सुधारनेको तत्पर हूँ। इस जगत में मेरे पास ऐसी कोई चीज नहीं है जिसे मैं छिपाना चाहूँ। जो विचार मुझे सूझते हैं उन्हें मैं तुरन्त व्यक्त कर देता हूँ। लेकिन मैं बहुत ज्यादा सोच-समझकर कार्य करनेवाला व्यक्ति होनेके कारण एकाएक अपने मतको छोड़ नहीं सकता। कोई आश्चर्य नहीं कि इसके कारण मेरे साथी मुझे ‘स्वेच्छाचारी’ मानते हों। मैं ‘स्वेच्छाचारी’ नहीं हूँ, ऐसी मेरी विनम्र मान्यता है। स्वेच्छाचारी व्यक्ति दूसरोंकी सुनना ही नहीं चाहता। मुझे तो याद पड़ता है कि मैं बच्चोंतक की भी बात सुनता हूँ और उनसे मैंने बहुत सीखा है। मैंने अहीरों और किसानोंसे भी बहुत ज्ञान प्राप्त किया है।

मैंने ऊपर ‘साथी’ शब्दका प्रयोग किया है। “मेरे अपने कोई अनुयायी नहीं हैं। मेरे विचारोंके अनुयायी भले ही हों।” मेरे इस कथनको श्री नरसिंहरावने ‘शब्द-जाल’ मानकर अनजाने ही मेरे साथ अन्याय किया है। मैंने किसीको धर्मगुरुका पद प्रदान नहीं किया और मैं खुद अपनेको उस पदके योग्य नहीं समझता। जबतक मन, वचन और कर्म से यम-नियम आदि व्रतोंका पूरी तरहसे पालन करनेकी शक्ति मुझमें नहीं आती तबतक में अनेक भूलें कर सकता हूँ। ऐसा व्यक्ति किसीको शिष्य नहीं बना सकता। कुछ वर्ष पहले मैंने एक ही मित्रको, और वह भी उनके आग्रहवश ही, शिष्य बनानेकी भूल की थी। उसमें मुझे धोखा खाना पड़ा। मेरा गुरुपन चल ही न सका। मेरी परीक्षा मिथ्या सिद्ध हुई।

इस युगमें किसीको गुरु बनाने अथवा किसीका गुरु बननेकी बातको में बहुत जोखिमकी बात समझता हूँ। गुरुमें हम पूर्णताकी कल्पना करते हैं। अपूर्ण मनुष्योंको गुरु बनाकर हम अनेक भूलोंके शिकार बन जाते हैं। इसीसे मैंने जानबूझकर कहा है कि मेरे विचारोंका अनुसरण करनेवाले व्यक्ति मुझे पसन्द हैं; अनुयायी मैं नहीं चाहता। विचारोंका अनुसरण करने में ज्ञानकी आवश्यकता है और मनुष्यका अनुसरण करने में श्रद्धा प्रधान है। मैं अपनी श्रद्धा-भक्ति नहीं चाहता। अपने विचारोंके प्रति भक्ति अवश्य चाहता हूँ। और वह तो ज्ञानपूर्वक ही हो सकती है। तिसपर भी मैं जानता हूँ कि फिलहाल अनेक लोग मुझपर मोहित होने के कारण मेरे विचारोंका अनुसरण करते हैं। उनके पापोंको मैं अपने ऊपर नहीं ओढ़ता क्योंकि उन्हें मैं अपना अनुयायी नहीं मानता। अपने अनुयायी और अपने विचारोंके अनुयायियोंके बीच उतना ही फर्क है जितना, ग्लेडस्टनके अनुसार, एक व्यक्तिको मूर्ख कहने और उसके विचारोंको मूर्खतापूर्ण कहने में है।