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वे भारतपर कब्जा नहीं करते। मैं यह माननेको भी तैयार नहीं हूँ कि अगर दो बुरे शासनोंके बीच चुनाव करना पड़ता तो जर्मन-शासन अधिक बुरा साबित होता। फिर ब्रिटेन जर्मनीके खिलाफ भारतकी खातिर तो नहीं लड़ा था। दूसरी ओर, मैं मानता हूँ कि ब्रिटिश शासनने हमारी धार्मिक भावनाकी जड़पर आघात किया है और अंग्रेजों ने जानबुझकर इस्लामके प्रभावको कमजोर बनाने की कोशिश की है। ब्रिटिश सरकारने ईसाई चर्च संगठनके साथ पक्षपात किया है। अगर इस पक्षपातसे भारतीय करदाताओं का नुकसान न होता तो व्यक्तिशः मैं इसपर कोई आपत्ति नहीं करता। मैं सुधारों में भी खुशी-खुशी हाथ बँटाता, अगर उससे खिलाफत और पंजाब सम्बन्धी अन्यायोंका परिशोधन होता और देश स्वराज्यकी दिशा में आगे बढ़ता। लेकिन, इसके विपरीत, मेरा तो निश्चित मत है कि सुधारोंसे भारतकी कोई खास भलाई होनेवाली नहीं है। उनसे हमें वास्तविक स्वराज्य प्राप्त नहीं हो सकता; और मेरे लिए या किसी भी भारतीयके लिए खिलाफत तथा पंजाब सम्बन्धी अन्यायोंको भूलना असम्भव है। अन्तमें मैं श्री फॉय तथा उन जैसे अन्य अंग्रेजोंको विश्वास दिलाता हूँ कि असहयोग विफल नहीं हो रहा है, और मैं या मेरा कोई भी सहयोगी इसकी विफलतापर परदा डालनेके लिए हिंसाका समर्थन नहीं कर रहा है। सच तो यह है कि हम अपनी तरफ से हिंसाको रोकने के लिए पूरी कोशिश कर रहे हैं। मैं जानता हूँ कि हमारी सफलता प्रत्येक अंग्रेजकी जानको अपनी जानकी तरह ही मूल्यवान् समझने में निहित है। हम जिस लड़ाई में जुटे हुए हैं, वह अच्छाई और बुराईकी लड़ाई है। व्यक्तियोंके रूपमें अंग्रेजोंसे हमारा कोई झगड़ा नहीं है। हम उस प्रणालीको सुधारने या समाप्त कर देनेका प्रयत्न कर रहे हैं, जो अच्छेसे-अच्छे अंग्रेजोंको भी बुराई, भ्रष्टाचार, लूट-खसोट और एक सम्पूर्ण राष्ट्रको अपमानित करने में अपना हाथ बँटानेपर बाध्य करती है।

‘बदमाश रोमवाले’

दूसरे ढंगके पत्रोंका एक नमूना है श्री पेनिंगटनका पत्र। श्री पेनिंगटनकी पूंछमें डंक तो होता ही है। उन्हें अपनी बातके सही होनेका कितना विश्वास है। उनका कहना है कि जिस तरह बदमाश रोमवालोंने ब्रिटेनका साथ छोड़ दिया उसी तरह अंग्रेज लोग भारतका साथ छोड़कर नहीं जा सकते क्योंकि उससे भारतको अराजकताकी स्थिति का सामना करना पड़ेगा और वे मुझसे भी यही महसूस करनेकी आशा करते हैं। काश कि अंग्रेज लोग भी उतने ही बदमाश होते जितने रोमवाले थे या अराजकताकी ओरसे उतने ही उदासीन होते जितना उदासीन इस धरतीका पुत्र, मैं हूँ। कारण, मैं सचमुच ऐसा मानता हूँ कि योजनापूर्वक सारे राष्ट्रका अपमान करने और उसे पुंसत्वहीन बनानेकी इस प्रक्रिया जारी रहनेसे तो अराजकता ही अच्छी है। जिस सरकारका एकमात्र उद्देश्य भारतके साधनोंसे नाजायज फायदा उठाते रहने के लिए उसे गुलामीमें जकड़ रखना है, उसे समाप्त करने की अपेक्षा अराजकतामें से व्यवस्थाका निर्माण करनेमें मैं अपने आपको अधिक समर्थ मानता हूँ। मुझे ब्रिटिश शासनके लोक-कल्याणकारी

 

१. सन् १९१९ के मॉन्टेग्यु-चेम्सफोर्ड सुधार।