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भाषण : गुजरात महाविद्यालयके विद्यार्थियोंके समक्ष


मुझे अपने अस्त्र नीचे रख देने पड़े। इस तरह मुझे किसी वस्तुका किसी विशेष समयपर एहसास हो जाता है। मैं जब विद्यार्थी था तब मुझे ज्यामिति समझमें नहीं आती थी। १३ प्रमेय हो जानेतक मुझे यही पता नहीं चला था कि ज्यामिति क्या चीज है। लेकिन बादमें जब शिक्षकने ब्लॅकबोर्डपर १३ वाँ प्रमेय समझाया तब एकाएक मेरे अन्तरमें उजाला हो गया, तबसे मैं रसपूर्वक ज्यामिति सीखने लगा। ठीक उसी तरह आज तीन-चार दिनसे एक बात मेरे मनमें स्पष्ट हो गई है। यदि हम असहयोगको सफल बनाना चाहते हों, यह चाहते हों कि विद्यार्थी इसमें भाग लें और हम एक वर्षके भीतर स्वराज्य प्राप्त कर लें तो हमें क्या करना चाहिए? जिस वस्तुको मैं पहलेसे मानता आया हूँ उसी वस्तुको मैं इस समय आपके सामने पेश करता हूँ। मेरा तो इस वस्तुमें प्रारम्भसे ही अटल विश्वास रहा है, तथापि इसके एक पहलूको मैंने आज जैसा समझा है वैसा पहले कभी न समझा था।

मैं कुलपतिकी हैसियतसे तुम्हें कुछ कहने नहीं आया हूँ, बड़े भाई अथवा गुरुजनके रूपमें सलाह देने और परामर्श करनेके लिए आया हूँ। यह सलाह देनेका आग्रह तो मैं अवश्य करूँगा। जिस दृढ़ता और विश्वासके साथ आज मैं यह बात तुमसे कहूँगा उस विश्वास और दृढ़ताके साथ मैंने यह पहले कभी तुमसे नहीं कही है। स्कूल छोड़ना, शिक्षा विहीन होना तो आत्मघात करतके समान है, यदि तुम्हारा यह खयाल हो तो मैं तुमसे कहूँगा कि स्कूल जानके पापके बजाय तुम आत्मघात ही करो। ईश्वर तुम्हें इस आत्मघातके लिए क्षमा करेगा। अभीतक मैं तुमसे अनेक दिलचस्प बातें कहता आया हूँ, लेकिन आज तो मैं यह कहनेके लिए आया हूँ कि यदि तुम असहयोगको सफल बनाना चाहते हो तो तुम अपने समयमें से प्रतिदिन एक-एक घंटा सूत कातनेके लिए दो। यह तुम्हें नई बात लगेगी, इससे तुम्हें आघात पहुँचेगा। जिनके मनमें स्नातक बननेकी आकांक्षा है और जिन्हें यह विश्वास दिलाया गया है कि यह विद्यापीठ उन्हें स्नातककी उपाधि प्रदान करेगी उनसे मैं कहता हूँ कि आज हिन्दुस्तानके लिए चरखा चलाना ही सबसे बड़ी उपाधि पाना है। मैं इसे इतना अधिक महत्व इसलिए देता हूँ कि इस समय मेरी विचारसरणीका प्रवाह जितना तीव्र है उसका उतना ही प्रवाह मैं तुम सबमें भी देखना चाहता हूँ।

हिन्दुस्तानके गुलाम हो जानेका एकमात्र कारण यही है कि हमने स्वदेशीका त्याग कर दिया। हिन्दुस्तानमें सूत कातनेका धन्धा कोई अलग धन्धा नहीं था, सभी वर्गोंकी हरेक स्त्री सूत काता करती थी। कितने ही पुरुष भी काता करते थे। ढाकाकी मलमलका सूत कातनेवाले पुरुष थे। लेकिन यह तो मैंने धन्धा करनेवाले थोड़े लोगोंकी बात की। सामान्य रूपसे कातना धन्धा नहीं वरन् कर्त्तव्य समझा जाता था, धर्म माना जाता था। जबतक हिन्दुस्तानमें लोग चरखा कातते थे तबतक हिन्दुस्तान आबाद था, समृद्ध था। हमारा इतिहास बताता है कि हाथसे कते और बुने कपड़ेसे न केवल देशकी भीतरी जरूरत पूरी होती थी वरन् उसका निर्यात भी किया जाता था। ईस्ट इंडिया कम्पनीने जैसे बना वैसे कपड़ा बनानेके इस उद्योगको नष्ट कर दिया। करोड़ों रुपये कमानेके लिए उसने लड़ाइयाँ कीं, बन्दरगाहोंको हस्तगत किया, व्यापारको हाथमें