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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पकोंसे प्रार्थना करता हूँ कि आप कमसे-कम एक वर्षके लिए इसी पद्धतिको अंगीकार करें और विद्यार्थियोंको गाँवोंमें भेजनके लिए तैयार करें।

इस वर्षके दौरान अगर तुम्हें इतनी ही शिक्षा मिले तो काफी है; अपनी गुजराती सुधारो, अंग्रेजीका त्याग करो, हिन्दुस्तानी सीखो, उर्दू लिपि सीख लो और चरखा चलाना सीख लो। इतना करोगे तो हम आगामी वर्षके लिए तैयार हो जायेंगे। मेरी तो कामना है कि स्वराज्य मिलनेतक इसी पद्धतिको जारी रखो। यदि ऐसा न बने तो कमसे-कम एक वर्षके लिए तो इसे जारी रखो ही। यही मेरा आजका सन्देश है।

तुम्हारे मनमें जो कोई शंका हो उसे निधड़क होकर पूछो। मैं नहीं चाहता कि कोई भी ऐसा विद्यार्थी जिसे इस कार्यक्रमके प्रति श्रद्धा न हो, इसे मान ले। तुम्हारी बुद्धि और हृदय अगर इस बातको कबूल करे तभी मेरी बात मानना।

प्र॰ – माँ-बाप कहेंगे कि महाविद्यालयमें तुम्हें पढ़ने भेजा था, चरखा चलाने नहीं।

उनसे कहना कि कातना सीखना भी पढ़ना ही है।

माँ-बाप गाँवोंमें जानके लिए मना करेंगे और कहेंगे कि घर ही बैठे रहो।

तो तुम घर बैठकर कातो, यह तो अच्छी बात है। कातनेकी भी मनाही करें तो उन्हें विनयपूर्वक समझाना। सारा दिन चरखा कातनेवाले लड़केसे माँ-बाप एक दिन, दो दिन, बहुत हुआ तो चार दिन लड़ेंगे लेकिन बादमें जरूर समझ जायेंगे। मैंने ऐसे भी माँ-बाप देखे हैं जो ऐसी बात कहते हैं कि जिसके कारण लड़के झूठ बोलने लगते हैं। लड़का अगर झूठ नहीं बोलता, सचपर दृढ़ रहता है तो वे खीझ उठते हैं; लेकिन दो-चार दिन खीझने के बाद खुद-ब-खुद चुप हो जाते हैं। तुममें इतनी दृढ़ता तो होनी ही चाहिए। कालेजके विद्यार्थीसे मैं इतनी दृढ़ताकी उम्मीद अवश्य रखता हूँ।

चरखेसे असहयोगकी लड़ाईमें क्या मदद होगी?

चरखेसे हिन्दुस्तानकी आर्थिक स्वतन्त्रता प्राप्त की जा सकेगी। जबतक आर्थिक स्वतन्त्रता नहीं मिलती तबतक हम स्वराज्यका उपभोग नहीं कर सकते। हम बिना साबुन, सुई और आलपिनके निभा सकते हैं, लेकिन कपड़के बिना नहीं। इससे हर वर्ष आर्थिक नुकसानमें वृद्धि होती चली जाती है। सरकारी लश्करका भारी खर्च हमें उठाना ही पड़ता है, साठ करोड़ रुपया हम कपड़ेमें दे देते हैं और अन्य व्यर्थकी चीजोंमें जो धन खर्च होता है सो अलग। यदि यह सत्य है तो हमें आर्थिक स्वतन्त्रता प्राप्त कर लेनी चाहिए। अगर साठ करोड़ रुपया हम बचा सकते हों तो हमें बचा लेना चाहिए। साठ करोड़ बचायेंगे तो हममें और भी रुपया बचानेकी शक्ति आयेगी अथवा उन वस्तुओंका आयात करनेमें भी हम सक्षम हो जायेंगे। आलपिन अथवा घड़ियोंके कारखानेके न होनेसे हिन्दुस्तानका भाग्य नहीं फूटता। लेकिन कपड़ेके अभावके कारण भारत सचमुच वैधव्य-जैसी स्थितिमें पड़ा है।

चरखके दाखिल किये जानेसे विद्यार्थियोंमें खलबली मच जायेगी।

खलबलीसे ही विद्यार्थी उन्नतिकी ओर अग्रसर होते हैं। खलबली मचाना तो मेरा और अध्यापकोंका धर्म है। अभी तो विद्यार्थी जागते हुए भी सोये-से हैं। जहाँ माँ-बाप के साथ, जगत्के साथ और अपने साथियोंके साथ इस तरहकी लड़ाई होती है वहीं सम्भवतः कुछ जागृति ही आती है, उससे पतन नहीं होता।