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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

१९१६ से आश्रममें रहते थे और जो काम उनके हिस्सेमें आता था उसे चुपचाप करते रहते थे। उन्होंने ऐसी ही आदत डाल ली थी। कांग्रेस अधिवेशनके बाद उनका विचार शोलापुर जाकर असहयोगका काम शुरू करनेका था। उनके अन्त समयका चित्रण करते हुए एक साथी लिखते हैं:

जिस समय हम वहाँ पहुँचे उस समय वे अन्तिम श्वासें ले रहे थे, उनकी चेतनाशक्ति क्षीण थी, तथापि थोड़ी देर बाद अर्थात् नौ-साढ़े नौ बजे मैंने उन्हें जरा बोलते देखा। मैंने कहा: "सरकार! (पटवर्धनका प्यारका नाम) शान्त रहो।" इसपर उन्होंने मुझे स्पष्ट उत्तर दिया: "शान्ति ही है!" थोड़े क्षण बाद बोले: "वास्तविक वस्तु दूसरी कोई नहीं है; एक ही है।" उनके सन्निपातकी अवस्था बीत चुकी थी। सबने स्पष्ट देखा कि वे किसी अन्य वस्तुका नहीं बल्कि सिर्फ सत्-चित्का ही स्मरण कर रहे थे। कुछ देर बाद मैंने पूछा: 'स्थितप्रज्ञ' का पाठ करें?" अपने आन्तरिक आनन्दको व्यक्त करते हुए वे स्वयं ही स्थितप्रज्ञका पाठ करने लगे।

इसके बाद पटवर्धनने और अन्य लोगोंने किस तरह एकाधिक बार 'गीता' के इस भागका पाठ किया, उसका वर्णन है।

यह कोई मृत्युकी निशानी नहीं है, यह तो उनके अमर होनेका लक्षण है। पटवर्धनकी मृत्युपर स्वार्थवश उनके साथी भले ही रोयें। पटवर्धनकी स्मृतिसे वे और भी अधिक कर्त्तव्यपरायणता सीख सकते हैं। पटवर्धन मरकर भी जीवित हैं। वे तो मरकर भी स्वराज्यकी सेवा कर रहे हैं।

भारतमें कितने ही ऐसे अदृश्य सेवक पड़े होंगे। लेकिन उनकी ओर कौन ध्यान देता है। और ध्यान देनेकी जरूरत भी क्या है? सच्चे साधु-सन्त अप्रकट रहकर ही सेवा करते हैं। पाण्डव सिर्फ पाँच ही नहीं हो सकते। अर्जुन-जैसे भक्त, भीम-जैसे योद्धा, युधिष्ठिर-जैसे सत्यवादी जगत् में अवश्य ही हैं। वे प्रसिद्धिको जानते तक नहीं, उसकी उन्हें कोई इच्छा भी नहीं। मेरी कामना है, भारतमाता पटवर्धन-जैसे अनेक सेवकोंको जन्म दे।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, १६–१–१९२१