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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


सरकार दूसरे कामोंके लिए जो पैसा देती है वह भी बेशक उतना ही दूषित है, लेकिन हमारा असहयोग अभी दूसरी बातोंके साथ-साथ शिक्षण संस्थाओंतक ही सीमित है, क्योंकि इन संस्थाओंके जरिये सरकार एक खास तरीकेसे शक्तिसंचय करती है। यह याद रहे कि हम सभी शिक्षण संस्थाओंका बहिष्कार कर रहे हैं, चाहे वे मदद पानेवाली हों या केवल सम्बद्ध। इन संस्थाओंके जरिये पड़नेवाले सरकारके दुष्प्रभावोंके परिणामकी हम रोकथाम कर रहे हैं। यह दुष्प्रभाव ही इसका निर्णायक कारण है।

नगरपालिकाओंमें सहयोग

वे मित्र आगे लिखते हैं:

मैं एक निर्वाचित पार्षद हूँ। मेरा ऐसा अनुभव है कि हमें अपने कामके हर दौरमें सरकारसे सहयोग करना पड़ता है। अगर सरकार, जैसा कि हम विश्वास करते हैं, बुरी और अन्यायी है तो उससे अदालतों और धारासभाओंमें असहयोग, मगर म्युनिसिपैलिटियोंमें सहयोग करते रहना कहाँतक वाजिब और युक्तियुक्त है?

यह सवाल बड़ा ही माकूल और मुनासिब है। लेकिन अगर हम इस बातको समझ लें कि नगरपालिकाएँ कौन्सिलोंकी तरह सरकारकी ताकतको मजबूत नहीं करतीं तो बहुत हदतक सन्देहका निवारण हो जायेगा। एक बार यह मान लेनेके बाद कि सरकारी तन्त्र बुरा है, इस बातकी जरूरत भी माननी ही होगी कि हमें ऐसा कुछ न करना चाहिए जो उस तन्त्रकी ताकतको बढ़ानेवाला हो। नगरपालिकाओंसे निकल आनेकी जरूरतसे भी मैं इनकार नहीं करूँगा। अगर कोई पार्षद या कोई नगरपालिका यह महसूस करे कि वह मौजूदा शासन-तन्त्रकी मदद कर रही है तो उसे वहाँसे निकल आने या अपने-आपको भंग कर देनेकी पूरी आजादी है। कांग्रेसका प्रस्ताव तो एक इशारा है कि सामूहिक रूपसे सारा राष्ट्र कहाँतक जा सकता है या उसे जाना चाहिए। लेकिन व्यक्तिगत रूपसे कौन कितना त्याग करे, इसकी कोई सीमा नहीं हो सकती।

अन्तरात्मा या इष्ट-सिद्धि

यह योग्य मित्र आगे लिखते हैं:

लेकिन अगर हम धर्म या अन्तरात्माको आधार न बनायें बल्कि सिर्फ यह कहें कि हम इस सरकारको असहाय कर देना चाहते हैं और इसके लिए उन सब उपायोंको (बशर्ते कि वे शान्तिपूर्ण और नैतिक हों) काममें लायेंगे, जो हमारे उद्देश्यको पूरा करनेवाले हों, तो हमारा आचरण सर्वथा युक्तियुक्त होगा। उस हालतमें यह सवाल रह ही नहीं जायेगा कि सरकारसे मिलनेवाला पैसा दूषित है या नहीं। अगर हम समझें कि अभी सरकारको कमजोर करनेके काममें मदद मिलती है तो सरकारी और सरकारसे मदद पानेवाली शिक्षण संस्थाओंमें से विद्यार्थियोंको हटानेका काम तो हम फिर भी कर ही सकते हैं।