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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बन्द कर देनेसे जो जरूरत पैदा होती है उसे पूरा करनेके लिए स्वदेशी सूतका उत्पादन अवश्य ही पुण्य है।

इसपर यह सवाल पूछा जा सकता है कि अगर सूत कातना इतना जरूरी है तो हर गरीब आदमीको मजूरी देकर यह काम क्यों न कराया जाये? इसका जवाब यह है कि चरखेपर सूत कातना, बुनाई या बढ़ईगिरी वगैरहकी तरह कोई पेशा नहीं है और न कभी रहा है। अंग्रेजोंके भारतमें आनसे पहले देशकी जो अर्थ-व्यवस्था थी उसमें सूत कातना माँ-बहनोंका फुरसतके समयका सम्माननीय काम समझा जाता था। आज हमारे पास जितना समय है उतने समयमें महिलाओंमें इस कलाको पुनरुज्जीवित करना मुश्किल है। लेकिन छात्रोंके लिए राष्ट्रके आह्वानका उत्तर देना अत्यन्त मामूली और सरल काम है। कोई यह न कहे कि यह काम तो पुरुषों और विद्यार्थियोंकी प्रतिष्ठाके अनुकूल नहीं है। पुराने जमानेमें यह कला केवल भारतीय महिलाओंतक इसलिए सीमित रही क्योंकि उन्हें काफी फुरसत रहा करती थी। और चूँकि यह कला लालित्यपूर्ण और संगीतमय है और इसमें किसी खास श्रमकी जरूरत नहीं होती, इसलिए महिलाओंका इसपर एकाधिपत्य हो गया था। लेकिन संगीतकी तरह यह भी नारी और पुरुष, दोनोंके लिए समान रूपसे शोभास्पद है। हाथ-कताई नारी-सुलभ गुणोंकी रक्षा, अकालसे बचाव और कीमतें कम करनेका बीजमन्त्र है। स्वराज्यका गुर भी इसमें निहित है। हमारे पुरखोंने विदेशी उद्योगपतियोंके शैतानी प्रभावमें आनेका जो पाप किया उसका हम जो न्यूनतम प्रायश्चित्त कर सकते हैं, वह है चरखे और हाथ-कताईको पुरुज्जीवित करना।

विद्यार्थी, हाथ-कताईको समाजमें उसकी जो इज्जतकी जगह थी, फिरसे दिला देंगे। खद्दरको फैशनेबल बनानेकी प्रक्रियाको वे तेज करेंगे, क्योंकि कोई भी सच्चे माता-पिता अपने बच्चोंके काते हुए सूतके कपड़े पहननेसे इनकार नहीं करेंगे। जब देशके विद्यार्थी इस कलाको इस ढंगसे अपनी व्यावहारिक मान्यता देने लगेंगे तब भारतकें बुनकर भी उस ओर अपना ध्यान देनेको मजबूर हो जायेंगे। अगर हम पंजाबियोंको, सिपाहीके पेशेसे नहीं बल्कि दरअसल दूसरे देशोंके आजाद और बेगुनाह लोगोंकी हत्याके पेशे से छुड़ाना चाहते हैं तो हमें उनका पुराना बुनाईका पेशा उन्हें फिरसे देना होगा। पंजाबके शान्तिप्रिय जुलाहोंकी पूरी जाति ही करीब-करीब ख़तम हो चली है। अब पंजाबके विद्यार्थियोंका कर्त्तव्य है कि वे पंजाबी बुनकरोंको उनके निर्दोष पेशेमें पुनः प्रतिष्ठित करें।

बादमें किसी दूसरे अंकमें मैं यह बताऊँगा कि स्कूलोंमें इस तरहका परिवर्तन करना कितना आसान है और इस रास्तेपर चलकर हम अपने स्कूलों और कालेजोंको कितना जल्दी राष्ट्रीय रूप दे सकते हैं। हर जगह विद्यार्थियोंने मुझसे यह पूछा है कि मैं राष्ट्रीय स्कूलोंमें कौनसी नई चीजें शुरू करूँगा। मैंने उनसे सब जगह यही कहा है कि कताई तो मैं जरूर ही शुरू करवाऊँगा। अब तो मैं पहलेसे भी ज्यादा साफ तौरपर यह महसूस करता हूँ कि संक्रमणके इस कालमें हमें कताई और राष्ट्रके तात्कालिक उपयोगमें आनेवाली कुछ दूसरी चीजोंपर ही विशेष रूपसे ध्यान देना