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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हम जो कुछ भोग रहे हैं, क्या वह हमारे अस्पृश्यताके अपराधका उचित दण्ड ही नहीं है? क्या हमने जैसा बोया था वैसा ही नहीं काटा है? क्या हमने अपने बन्धु-बान्धवोंके साथ ही डायरवादी और ओ'डायरवादी व्यवहार नहीं किया है? हमने 'अछूत' लोगोंको अपने समाजसे पृथक् कर दिया और बदलेमें स्वयं हमें ब्रिटिश उपनिवेशोंने अछूतोंकी भाँति पृथक् कर दिया है। हम उन्हें सार्वजनिक कुँओंसे पानी नहीं लेने देते और खानेके लिए उनके आगे हम अपनी जूठन फेंक देते हैं। उनकी छायामात्रसे हम अपवित्र हो जाते हैं। दरअसल अंग्रेजोंके विरुद्ध हम जितने भी आरोप लगाते हैं उनमें से कोई भी ऐसा आरोप नहीं है जो 'अछूत' लोग हमारे विरुद्ध न लगा सकते हों।

हिन्दुत्वपर लगे इस कलंकके धब्बेको कैसे मिटाया जाये? "अपने प्रति जैसे व्यवहारकी अपेक्षा तू औरोंसे रखता है, दूसरोंके प्रति स्वयं भी वैसा ही व्यवहार कर।" अंग्रेज अधिकारियोंसे मैंने अक्सर यह कहा है कि अगर वे हिन्दुस्तानके लोगोंके सेवक और मित्र हैं तो वे अपनी झूठी उच्चताका दावा छोड़ दें, संरक्षक-प्रतिपालकवाला भाव त्याग दें, अपने प्रेमपूर्ण कार्योंसे यह दिखायें कि वे हर तरहसे हमारे मित्र हैं, और हमें ठीक उसी तरह अपना समकक्ष मानें जिस तरह वे अपने साथी अंग्रेजोंको मानते हैं। पंजाब और खिलाफतके अनुभवोंके बाद मैंने एक कदम आगे बढ़कर उनसे पश्चात्ताप और हृदय-परिवर्तन करनेके लिए कहा है। ठीक उसी तरह हम हिन्दुओंके लिए भी यह जरूरी है कि हम अपने कियेपर पश्चात्ताप करें; उन लोगोंके प्रति अपने व्यवहारको बदलें, जिन्हें आजतक हम एक उतनी ही शैतानियत-भरी प्रणालीके द्वारा 'दबाते' रहे हैं, भारतके प्रति ब्रिटिश शासन-प्रणालीको हम जितनी शैतानियत-भरी मानते हैं। उनके लिए कुछ घटिया किस्मके स्कूलोंकी व्यवस्था करके हमें यह नहीं मान लेना चाहिए कि हमने उनपर बहुत कृपा कर दी; हमें उनकी ओर हेय दृष्टिसे नहीं देखना चाहिए। हमें उनके साथ सगे-भाइयोंका-सा व्यवहार करना चाहिए; वे हमारे सगे भाई ही हैं। हमें उनको वह विरासत वापस कर देनी चाहिए, जो हमने उनसे छीन ली है। और यह काम कुछ अंग्रेजी पढ़े-लिखे सुधारकोंको ही नहीं करना चाहिए; इस दिशामें जनसाधारणको स्वेच्छासे सजग प्रयास करना चाहिए। इस आवश्यक सुधारमें पहले ही बहुत देर हो चुकी है; हम अनन्तकालतक केवल प्रतीक्षा करते नहीं रह सकते। हमने जो एक सालकी अवधि निश्चित की है, तैयारी और तपस्याकी इस अवधिके भीतर हमें अपने लक्ष्यतक पहुँचना ही है। यह सुधार ऐसा है जो स्वराज्यके बाद नहीं, स्वराज्यसे पहले हो जाना चाहिए।

अस्पृश्यताका विधान धर्ममें नहीं है। यह तो शैतानकी एक चाल है। शैतानने हमेशा शास्त्रोंकी दुहाई दी है। लेकिन शास्त्र सत्य और विवेकसे बढ़कर नहीं हैं। वे विवेकको निर्मल बनाने और सत्यको उद्भासित करनेके लिए ही रचे गये हैं। मैं किसी निर्दोष घोड़ेको सिर्फ इसीलिए अग्निमें होमनेके लिए तैयार नहीं हूँ[१] कि वेदोंमें इस बलिदानका विधान है। मेरे लिए 'वेद' दैवी और अपौरुषेय हैं। [जैसा कि

  1. गांधीजीका तात्पर्य अश्वमेध यज्ञसे है।