पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 19.pdf/२९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२६२
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बाँधकर सन्नद्ध हो जाना चाहिए। हिम्मत मुझे कहाँसे मिल सकती है? मुझे दयाका अभ्यास करना चाहिए। ज्ञानकी उपलब्धि करनी चाहिए। यह सब बातें लोग आप ही से सीख सकते हैं। शुद्ध धर्मवान व्यक्तिको हिन्दू, मुसलमान, काबुली सभी पहचान लेंगे और उसे आदर देंगे। आप धारालोंको सिखायें कि उनका काम लूटपाट करना नहीं है।

धारालोंसे मेरा यह कहना है कि आप लोगोंको तंग न करें; पाटीदारोंसे मेरा कहना है कि आप [चोरी-चपाटीको] उत्तेजन न दें। और यदि आप ब्राह्मण धर्मका पालन न कर सकें तो लाठियोंसे लड़कर उठाईगिरोंको मार भगाये।

यदि धाराले और पाटीदार दोनों अपने धर्मको भूल जायें तो मैं साधुओंसे कहूँगा कि आप उनकी रक्षा करें, उन्हें सुधारें, उनके मन निर्मल बनायें, जब आप ऐसा काम करेंगे तभी धर्मकी पुनः स्थापना होगी, तभी हम हिन्दुस्तानको कर्मभूमि कहेंगे।

मैं तो चला जाऊँगा लेकिन आपको यह कार्य हाथमें ले लेना है। मैं तो कहूँगा कि आज ही दो-चार साधुओं, दो-चार पाटीदारों, दो-चार धारालोंकी एक समिति नियुक्त करके उनसे यह काम शुरू करावाइए। आप यह सब करनेकी प्रतिज्ञा लें। यह काम किया गया तो स्वराज्य एक वर्षके भीतर मिलकर रहेगा। ईश्वर आपको प्रेम, साहस, दया और सत्यका यज्ञ करनेकी शक्ति दे, ऐसी मेरी प्रार्थना है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २७–१–१९२१

 

१२९. भाषण : साधुओंकी सभा, वड़तालमें[१]

१९ जनवरी १९२१

मुझे सदा साधुओंसे मिलनेकी इच्छा रहती है। जब मैं कुम्भ मेलेमें हरिद्वार गया तब मैंने वहाँ किसी ऐसे साधुकी तलाश करनेका प्रयत्न किया जिससे मिलकर मन प्रफुल्लित हो उठे। मैं साधुओंके एक-एक अखाड़ेमें गया। जितने भी प्रसिद्ध साधु थे मैं उन सभीसे मिला। लेकिन मुझे कहना चाहिए कि मुझे निराशा ही हाथ लगी। मेरा विश्वास है कि साधु हिन्दुस्तानके भूषण हैं और उन्हींसे हिन्दुस्तानका अस्तित्व रहेगा; लेकिन आज मुझे इन साधुओंमें बहुत कम साधुताके दर्शन होते हैं। मैंने, अपने हरद्वार वासकी अन्तिम पूरी रात यही विचार करनेमें लगाई कि हिन्दुस्तानके साधु सच्चे अर्थोंमें साधु बनें इसके लिए मैं क्या कर सकता हूँ? अन्तमें मैंने बड़ा कठिन व्रत लिया। मैंने क्या व्रत लिया सो यहाँ नहीं कहूँगा। लेकिन वह व्रत कठिन है, ऐसा बहुतसे लोग मानते हैं। ईश्वरकी कृपासे मैं इस व्रतको अभीतक निभा सका हूँ।

मुझे अनेक मित्रोंने सुझाव दिया है कि मुझे सन्यासी हो जाना चाहिए; लेकिन मैं सन्यासी नहीं हुआ। उस दिन भी अन्तरात्माने यह बात स्वीकार नहीं की थी और

  1. कि॰ घ॰ मशरूवालाके यात्रा विवरणसे उद्धृत।