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भाषण : कलकत्तामें

संस्कृतकी एक कहावतका भावानुवाद ही है कि——सत्यको तबतक बार-बार दोहराना पड़ता है, जबतक लोग उसे ग्रहण नहीं कर लेते, और मेरा इरादा भी यही है कि जबतक हमारे देशभाई, हमारे नेता[१] इस सत्यको ग्रहण नहीं कर लेतें, देशकी इस पुकारका उचित उत्तर नहीं देते तबतक मैं इसे उनके सामने बार-बार दोहराता जाऊँगा। मैं यहाँ वही बात दोहरानके लिए आया हूँ जो मैं कई मंचोंसे पहले कह चुका हूँ——अर्थात् यही कि भारत अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा, अपनी खोई हुई स्वाधीनता तबतक प्राप्त नहीं कर सकता जबतक वह असहयोगके आह्वानके प्रति पूरा उत्साह नहीं दिखाता। हम भारतीय प्रकृतिसे ही कुछ ऐसे हैं कि इस बड़ी सरकारसे किसी और तरीकेसे लड़ ही नहीं सकते।

असहयोग प्रत्येक भारतीयके खूनमें समाया हुआ है, और अगर आप यह जानना चाहते हैं कि लाखों-करोड़ों आम लोगोंने असहयोगके आह्वानपर, जितना उत्साह उन्होंने किसी भी आह्वानके प्रति नहीं दिखाया, उतना उत्साह क्यों दिखाया तो मैं कहूँगा कि इसका कारण यह नहीं है कि मैंने इस आह्वानको स्वर दिया है। असहयोगकी भावना उनकी अन्तःप्रकृतिमें जन्म लेती है, उनकी अन्तःप्रकृतिमें पोषित होती है। असहयोग प्रत्येक धर्मका अंग है। यह हिन्दुत्वका अंग है। यह इस्लामका अंग है; और यही कारण है कि यद्यपि आज हम गिरी हुई अवस्थामें हैं और अपने-आपको असहाय महसूस कर रहे हैं फिर भी असहयोगने हमें अपनी दीर्घ निद्रासे जगा दिया है। असहयोगने हमें विश्वास दिया है, साहस दिया है, आशा दी है, बल दिया है।

हमारे शिक्षित नेताओंने अबतक असहयोगके आह्वानके प्रति उत्साह नहीं दिखाया है तो मैं पूरी विनम्रताके साथ कहना चाहूँगा कि वे आस्थाहीन हैं, शंकालु हैं और उनमें धर्मका वह तेज नहीं है जो जनता और सर्व साधारणमें है। वे आधुनिक सभ्यतामें, या जिसे हम "पाश्चात्य सभ्यता" कहते हैं, पूरी तरहसे डूबे हुए हैं। मैंने "पाश्चात्य सभ्यता" शब्दोंका प्रयोग किया है। लेकिन मैं चाहता हूँ कि आज आप और मैं, हम दोनों ही इन दोनोंका भेद स्पष्ट जान लें। मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मैं पश्चिमसे घृणा करनेवाला आदमी नहीं हूँ। पाश्चात्य साहित्यसे मैंने बहुत-सी चीजें सीखी हैं, जिसके लिए मैं पश्चिमका आभारी हूँ। लेकिन मैं आपके सामने स्वीकार करता हूँ कि आधुनिक सभ्यताका आभारी मैं इस बातके लिए हूँ कि उसने मुझे सिखाया है कि अगर मैं चाहता हूँ कि भारत अपने गौरवके उच्चतम शिखरपर आसीन हो तो मुझे अपने देशभाइयोंसे साफ कह देना चाहिए कि आधुनिक सभ्यताके वर्षोंके अनुभवसे मैं एक ही पाठ सीख पाया हूँ और वह यह कि हमें हर हालतमें इससे दूर ही रहना चाहिए। आधुनिक सभ्यता क्या है? वह जड़की आराधना है, हमारे भीतर जो पशु है उसकी पूजा है——यह विशुद्ध भौतिकवाद है और अगर आधुनिक सभ्यता हर कदमपर भौतिकतावादी सभ्यताकी विजयकी बात न सोचे तो जैसे उसका कोई मतलब ही न रह जाये!

  1. अमृतबाजार पत्रिकामें "बुजुर्ग" शब्द है।