पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 19.pdf/३१०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२८२
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अपने पत्र-लेखकोंसे

श्री सीतारामके पत्रके बारेमें लिखते हुए मैं अपने अन्य पत्र-लेखकोंसे भी दो शब्द कहना चाहता हूँ। इन पत्र-लेखकोंमें दो तरहके लोग शामिल हैं——एक तो वे जो मुझे एक पत्रकारके नाते पत्र लिखते हैं और दूसरे वे जो मुझसे सलाह लेनेके लिए पत्र लिखते हैं। पत्र-व्यवहार इतना अधिक बढ़ गया है कि उसे निपटाना मेरे अकेलेके बूतेके बाहर है। यह सही है कि इस काममें और भी कई लोग मेरी मदद करते हैं, लेकिन हम सब मिलकर इतने सारे पत्रोंको निपटा नहीं पाते। इसलिए अगर पत्रलेखकों को जवाब न मिले तो वे यह न समझें कि जवाब देनेका मेरा मन्शा नहीं है; वे यही समझें कि हरएकको अलग-अलग जवाब देता मेरे बसका नहीं है। लेकिन साथ ही प्रत्येक पत्रकी पहुँच देनेकी हर चन्द कोशिश की जा रही है। कहनेकी जरूरत नहीं कि हरएक पत्र-लेखकके लिए व्यक्तिगत रूपसे ध्यान देना मेरे लिए गैरमुमकिन ही है। साथ ही मैं यह भी बता देना चाहूँगा कि मुश्किलसे पढ़ी जा सकनेवाली घसीट-लिपिमें लिखे लम्बे खरोंके मुकाबले मुद्देकी बात कहनेवाले, संक्षिप्त और साफ अक्षरोंमें लिखे पत्रोंपर जल्दी ध्यान दिया जायेगा।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २६–१–१९२१
 

१३८. हिन्द स्वराज्य[१]

यह बेशक मेरे लिए सौभाग्यकी बात है कि मेरी इस छोटी-सी किताबकी ओर बहुत अधिक लोगोंका ध्यान गया है। मूल किताब गुजरातीमें है। इसकी जिन्दगीमें बहुत-से उतार-चढ़ाव आये हैं। सबसे पहले यह दक्षिण आफ्रिकाके 'इंडियन ओपिनियन' अखबारमें छपी थी। १९०८ में[२] जब मैं लन्दनसे दक्षिण आफ्रिका लौट रहा था, उस समय समुद्रयात्राके दौरान भारतीय आतंकवादी विचारधारा और उससे मिलती-जुलती विचारधारा रखनेवाले दक्षिण आफ्रिकाके लोगोंके जवाबमें मैंने इसे लिखा था। लन्दनमें मुझे हर जाने-पहचाने भारतीय आतंकवादीके सम्पर्कमें आनेका मौका मिला था। उनकी बहादुरीने मुझे प्रभावित किया, लेकिन मैंने उनके जोशको गुमराह पाया। मैंने महसूस किया कि भारतकी मुसीबतोंका इलाज हिंसा नहीं है; और भारतीय सभ्यताको आत्म-रक्षाके लिए दूसरी तरहके और ज्यादा ऊँचे किस्मके हथियारकी जरूरत है। दक्षिण आफ्रिकाका सत्याग्रह उस समय महज दो सालका एक नन्हा बच्चा ही था। लेकिन फिर भी वह इतना विकसित हो चुका था कि मैं उसके बारेमें काफी आत्म-विश्वास के साथ लिख सकता था। उसकी इतनी सराहना की गई कि बादमें उसे पुस्तिकाके रूपमें प्रकाशित किया गया। भारतमें भी लोगोंका ध्यान उसकी ओर गया। बम्बई

  1. देखिए खण्ड १०, पृष्ठ ६–६९ ।
  2. १९०९ में।