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हिन्द स्वराज्य

सरकारने उसपर पाबन्दी लगा दी।[१] इसके जवाबमें मैंने उसका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया। मैंने सोचा कि इस पुस्तकके विषयकी जानकारी अपने अंग्रेज मित्रोंको कराना मेरा कर्त्तव्य है। मेरी रायमें यह एक ऐसी पुस्तक है जिसे बच्चेके हाथमें भी दिया जा सकता है। यह नफरतके बदले प्यारका पाठ सिखाती है। यह हिंसापर आत्मबलिदानको तरजीह देती है। यह पशुबलपर आत्म-बलसे विजय पानेका रास्ता दिखाती है। इसके कई संस्करण हुए हैं और जो पढ़ सकते हैं उन सभीको मैं इसे पढ़नेकी सलाह देता हूँ। मैं सिवाय एक शब्दके इसमें से कुछ भी कम नहीं किया है और वह शब्द भी एक महिला मित्रके लिहाजके कारण काटा गया है। भारतीय संस्करणकी भूमिकामें मैंने इस रद्दोबदलका कारण बता दिया है।

यह पुस्तिका "आधुनिक सभ्यता" की कड़ी भर्त्सना करती है। यह १९०८ में लिखी गई थी। आज मेरी आस्था और मेरा विश्वास पहलेसे गहरा ही हुआ है। मैं महसूस करता हूँ कि अगर भारत आधुनिक सभ्यताका परित्याग कर दे तो वह सुखी ही होगा।

लेकिन साथ ही मैं पाठकोंको सावधान भी करना चाहूँगा कि कहीं वे यह न सोचने लगे कि इस पुस्तिकामें वर्णित स्वराज्यकी स्थापना करना ही आज मेरा ध्येय है। मैं जानता हूँ कि अभी भारत उसके लिए तैयार नहीं हुआ है। इसे अविनय समझा जा सकता है, लेकिन मेरा ऐसा ही विश्वास है। इसमें जिस स्वशासनकी बात कही गई है, व्यक्तिगत रूपसे तो मैं उसीके लिए काम कर रहा हूँ। परन्तु आज मैं जो संवबद्ध कार्य कर रहा हूँ वह भारतीय जनताकी आकांक्षाओंके अनुरूप संसदीय ढंगका स्वराज्य प्राप्त करनेकी दृष्टिसे कर रहा हूँ। मैं रेलों और अस्पतालोंको खतम करने का प्रयत्न नहीं कर रहा हूँ; वैसे यदि ये कुदरती तौरपर नष्ट हो जायें तो मैं उसका स्वागत ही करूँगा। न तो रेलें और न अस्पताल ही ऊँची और पवित्र सभ्यताकी कसौटी हैं। ज्यादासे-ज्यादा हम उन्हें एक जरूरी बुराई ही मान सकते हैं। किसी राष्ट्रके नैतिक मानको तो वे एक इंच भी नहीं बढ़ाते। न मेरा मकसद अदालतोंको स्थायी रूपसे खत्म कर देना ही है; हालाँकि मैं मानता हूँ कि यह एक ऐसी बात है, सभीको जिसके खत्म हो जानेकी कामना करनी चाहिए।" सारी मशीनों और मिलोंको खत्म करनेकी कोशिश तो मैं और भी कम कर रहा हूँ। इसके लिए, लोग आज जितने तैयार हैं, उससे कहीं ऊँचे दर्जेकी सादगी और त्यागकी जरूरत है।

इस समय तो कार्यक्रमका केवल अहिंसावाला अंश ही पूराका-पूरा कार्यान्वित किया जा रहा है। लेकिन मुझे दुःखके साथ यह कहना पड़ता है कि पुस्तककी भावनाके अनुसार तो उसका भी पालन नहीं हो रहा है। अगर होता तो सिर्फ एक ही दिनमें भारतमें स्वराज्य कायम हो जाता। भारत यदि प्रेमके सिद्धान्तको सक्रिय रूपसे अपना ले और राजनीतिमें उसपर अमल करे तो स्वराज्य उसे ईश्वरके आशीर्वादिके रूपमें सहज ही प्राप्त हो जायेगा। लेकिन मुझे बहुत दुःखके साथ स्वीकार करना पड़ता है कि अभी वह शुभ घड़ी बहुत दूर है।

  1. मार्च १९१० में।