पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 19.pdf/३२३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२९५
पत्र : सी॰ एफ॰ एन्ड्र्यूजको

सुननेसे भी पहले आरम्भ किया था और मुझे दक्षिण आफ़्रिकामें अन्य ईसाई मतावलम्बियोंके प्रभावमें आनेसे पहले अस्पृश्यताके पापका भान हो चुका था। इस सत्यकी प्रतीति मुझे जब मैं बच्चा ही था तभी हो गई थी। मेरी माँ जब हम [दोनों] भाइयोंको किसी ढेढ़के छू जानेपर नहानेको कहा करती थी, तब मैं उसके इस आदेशपर हँसा करता था। १८९७में एक बार डर्बनमें, मैं अपनी पत्नीको इस बातपर घरसे अलग कर देते तकके लिए तैयार हो गया था कि वह वहाँ लारेंस नामके व्यक्तिसे, जिसके बारेमें वह जानती थी कि वह ढेढ़ है और जिसे मैंने अपने साथ रहनेके लिए बुला लिया था, बराबरीका बर्ताव नहीं करना चाहती थी। अस्पृश्योंकी सेवा करनेकी मुझे धुन रही है क्योंकि मुझे ऐसा लगा है कि यदि सचमुच अस्पृश्यता हिन्दूधर्मका अंग हो तो मैं हिन्दूधर्ममें बना नहीं रह सकता।

मैं यह सब कहकर भी तुमको सब-कुछ नहीं बता पाया हूँ। अस्पृश्योंके सम्बन्धमें मेरी भावना जितनी उत्कट है, कालीघाटकीप[१] स्थितिके सम्बन्धमें भी उतनी ही है। मैं जब-जब कलकत्ता जाता हूँ तब-तब मुझे बकरोंके काटे जानेका खयाल हो आता है और मैं बेचैन हो उठता हूँ। मैंने इसी कारण हरिलालसे[२] कहा था कि वह कलकत्तेमें न बसे। ढेढ अपना दुःख बता सकता है। वह दर्खास्त दे सकता है। वह हिन्दुओंके विरुद्ध विद्रोह भी कर सकता है लेकिन बेचारे मूक बकरे क्या करें? जब कभी मुझे इस बातका खयाल आता है, मैं वेदनासे विकल हो उठता हूँ; लेकिन मैं इसके सम्बन्धमें बोलता या लिखता नहीं हूँ। किन्तु फिर भी इन प्राणियोंकी सेवाके लिए अपने-आपको योग्य बना रहा हूँ जो मेरे जैसे ही जीवधारी हैं और मेरे धर्मके नामपर काटे जाते हैं। सम्भव है मैं इस कार्यको इस जीवनमें पूरा न कर सकूँ। मैं इसे पूरा करनेके लिए फिर जन्म लूँगा या कोई दूसरा व्यक्ति, जिसने मेरी जैसी ही वेदनाका अनुभव किया हो, इसे पूरा करेगा। मुख्य बात यह है कि हिन्दुओंकी सेवाका तरीका आधुनिक तरीकोंसे अलग है। वह तरीका तपस्याका है। तुम्हारा ध्यान 'आधुनिक शब्द'के प्रयोगकी तरफ जायेगा, क्योंकि मेरा खयाल है कि ईसाइयोंका तरीका हिन्दुओंके तरीकोंसे जुदा नहीं है। मुझे अब भी ऐसा नहीं लगता कि जो बातें इस समय मेरे दिमागमें चक्कर काट रही है मैं वे सब इस पत्रमें लिख पाया हूँ। लेकिन मेरी समझमें तुमको स्थिति समझानेके लायक मैं काफी कुछ लिख चुका हूँ। केवल इतना और कहना चाहता हूँ कि तुम इस अधूरे-से पत्रको अगर क्षमा-याचनाके रूपमें स्वीकार नहीं करोगे तो कमसे-कम शिकायतके रूपमें भी नहीं मानोगे।

तुमने सर विलियम विन्सेंटको[३] जो उत्तर लिखा है वह समुचित है।

मैं जानता हूँ कि यदि डाक्टर चिमनदास जाना चाहें तो तुम उन्हें चले जानेकी अनुमति अवश्य दे दोगे। आवश्यकता इस बात की है कि शान्तिनिकेतन कर्त्तव्य-

 
  1. कलकत्तामें काली मन्दिरका स्थान।
  2. गांधी।
  3. वाइसरायकी कार्यकारिणी कौंसिलके सदस्य; १९१७ भारतीय परिषद्के सदस्य, १९२३-३१ ।