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कुछ प्रश्न

रह ही नहीं सकेगी। हमें लड़ाई करने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। हमें यूरोप और एशियामें से अपने व्यक्तियोंको खींच लेते भरकी जरूरत है। लेकिन मान लीजिए हम लड़ना चाहें तो स्वतन्त्र भारतको लड़नेका अधिकार तो रहेगा ही।

बाह्य एकताको माँग न करो, सत्कार्य करते जाओ

स॰ : आपने एक वर्षके भीतर स्वराज्य दिलानेका वचन दिया है। एकता हो तो वह अवश्य ही एक महीनेमें मिल जायेगा, लेकिन जब बड़े-बड़े नेता——जैसे कि शास्त्रीजी[१], बनर्जी[२], मालवीयजी आदि इसके विरुद्ध हैं तब विजय प्राप्त करना दुष्कर है। और फिर आप भी उन्हें अपनी ओर लानेका कोई प्रयत्न नहीं करते।

आइये, हम पूर्ण एकताके तात्पर्य को समझ लें। एकताका अर्थ परस्पर एकमत होना नहीं है। व्यक्ति-व्यक्तिके भी जुदा-जुदा मत हो सकते हैं किन्तु इसके बावजूद एकता हो सकती है। मालवीयजी और मुझमें काफी मतभेद है तथापि हम दोनोंके बीच सामंजस्य और हार्दिक एकता भी बहुत है। उन्हें और अन्य लोगोंको एकमत करनेके मेरे प्रयत्न जारी ही हैं। यह असहयोगियोंके कृत्योंसे ही हो सकता है। जहाँ दलील काम नहीं दे सकती वहाँ सत्कार्यसे काम बन जाता है। एक वर्षमें स्वराज्य प्राप्त करनेके मेरे वचनके साथ एक शर्त यह जुड़ी हुई है कि यदि असहकारी अपने कर्त्तव्यका पालन करेंगे तो हमें स्वराज्य एक वर्षके भीतर अवश्य ही मिल जायेगा। कांग्रेसमें शामिल हुए बीस हजार व्यक्तियोंने और उसी तरह जुदा-जुदा शहरोंमें मिलनेवाले हजारों स्त्री-पुरुषोंने जो मत प्रकट किये हैं यदि वे उनके अनुसार चलेंगे तो निर्धारित समयमें स्वराज्य मिलकर रहेगा। यह माननेका मेरे पास कोई कारण नहीं है कि वे ऐसा नहीं करेंगे।

क्या मैं तानाशाह हूँ?

स॰ : आप कहते हैं कि आप तानाशाह (डिक्टेटर) नहीं हैं। क्या आपने किसी अन्य नेताकी छोटीसे-छोटी बात भी मानी है? विषय समितिके[३] सामने भी आप चट्टानकी तरह अविचलित रहे हैं। जब एक ओर आप हमें अन्तःकरणकी आवाजपर चलनेके लिए कहते हैं तो दूसरी ओर जनतासे अपने मतका समर्थन करवानेके लिए इतनी उठा-पटक क्यों कर रहे हैं?

मैं अवश्य यहीं मानता हूँ कि मैं तानाशाह नहीं हूँ; इतना ही नहीं, मुझमें तानाशाहीका लेश भी नहीं है; क्योंकि मेरा धर्म ही सेवा-धर्म है। मैंने तो बहुत नेताओं का कहना माना है और मानता आया हूँ। कलकत्तामें और नागपुरमें हुई विषय-समितिको बैठकों में मैं अनेक बातोंपर सहमत हो गया था लेकिन इतना अवश्य है कि जहाँ अन्तःकरणकी पुकारकी बात आती है वहाँ मैं आग्रही बन जाता

  1. वी॰ एस॰ श्रीनिवास शास्त्री।
  2. सुरेन्द्रनाथ बनर्जी।
  3. सितम्बरमें कलकत्तामें हुए विशेष अधिवेशनके अवसरपर और दिसम्बर १९२० में नागपुरमें हुए वार्षिक अधिवेशनके अवसरपर।