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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हिमालयमें एकान्तवास मुझे स्वर्गिक आनन्द देगा। पशुबलका प्रयोग करनेवाले हिन्दुस्तानको मेरी सेवाएँ बेकार जान पड़ेंगी। और मैं उस समय देशका आशीर्वाद लेकर हिमालयकी ओर चल पडूँगा।

[क्या] आदर्श राज्य काल्पनिक नहीं है?

आपने 'नवजीवन'में लिखा है कि सच्चा ब्रह्मचारी केवल कल्पनामें ही होता है। उसी तरह आदर्श राज्य भी क्या केवल कल्पनामें ही नहीं है? क्या ऐसा राज्य पहले कभी था? क्या भविष्यमें होगा?

आदर्शपर पूरी तरहसे अमल हो जाये तो वह आदर्श ही न रहे। तथापि हमें कोई-न-कोई आदर्श सामने रखकर ही चलना चाहिए नहीं तो हम धोखा खा जायेंगे। आदर्श सरल रेखा और आदर्श समकोण तो कल्पनाकी ही वस्तु हैं। फिर भी सरल रेखा और समकोणके उस आदर्शको सामने रखे बिना कोई शिल्पी कोई भी इमारत खड़ी नहीं कर सकता। यही बात आदर्श स्वराज्यपर भी लागू होती है——आदर्श साधनोंको ध्यानमें रखते हुए और उनपर अमल करते हुए हम जल्दीसे-जल्दी जैसा चाहिए वैसा स्वराज्य प्राप्त कर लेंगे।

सूरत निवासी भाईकी प्रश्नावली यहाँ पूरी हो गई। उन्होंने अपना पत्र मधुर प्रस्तावनासे शुरू किया है। प्रश्नोंमें कहीं-कहीं कड़ी भाषा दिखाई देगी लेकिन प्रश्न विनम्रतापूर्वक पूछे गये हैं, ऐसी मेरी मान्यता है। प्रश्नकर्त्ताने अपना नाम-पता भी दिया है। उनके अन्तिम वाक्योंमें से तीन वाक्य उद्धृत करता हूँ :

जैसे पिता पुत्रके अपराधको क्षमा कर देता है, ठीक वही बात आप मेरे विषयमें भी समझ लीजियेगा। जैसे स्कूलमें अध्यापक कहते हैं कि अगर कोई प्रश्न समझमें न आये तो उसे बार-बार पूछ लेना चाहिए, उसी तरह फिलहाल मैं आपसे ऐसे प्रश्न पूछता रहूँगा। यदि ये पत्र दोषपूर्ण अथवा अपमानजनक लगें तो इन्हें तुरन्त फाड़ फेंकें।

विद्यार्थियोंका व्यवहार

दूसरा पत्र अहमदाबादके एक प्रसिद्ध लेखकका है। उन्होंने यह पत्र 'स्वदेशी' उपनाम से लिखा है। उसमें पाँच प्रश्न हैं। एकमें विद्यार्थियोंको दी गई मेरी सलाहपर विवेचन किया गया है। इस प्रश्नपर इतना अधिक विचार-मन्थन किया जा चुका है कि अब इसमें से कुछ विशेष हासिल होनेवाला नहीं है, इसलिए उसे छोड़े देता हूँ। इस सम्बन्धमें मैं इतना ही कहूँगा कि मैंने विद्यार्थियोंको जो सलाह दी है उससे वे उद्धत और स्वच्छन्द नहीं हुए हैं। वे पिंजरेमें बन्द थे; पिजरेसे निकला हुआ पंछी कुछ अति करता ही है। अतः इस सम्बन्धमें कटाक्ष नहीं किया जाना चाहिए। स्कूलों-कालेजोंसे बाहर निकले हुए विद्यार्थी-समुदायको जितना मैं समझता हूँ उतना कदाचित् ही कोई और उसे समझता होगा। उन्होंने विनयका छोर नहीं छोड़ा है। वे अपनी आत्मासे, जनसमाजसे और अपने गुरुजनोंसे जूझ रहे हैं और तरुण वयके युवकोंसे जितनी