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पत्र : ड्यूक ऑफ कनॉटको

और असहयोगको अपनाना चाहिए। यदि आप अहिंसा और असहयोगकी भावनाको देशभरमें नहीं फैला सकते तो आपके लिए स्वराज्य प्राप्त करना असम्भव होगा। आप स्कूल-कालेजों तथा अदालतोंको छोड़ दें। जिन लोगोंने अपनी पदवियाँ त्याग दी हैं और स्कूल-कालेजों तथा अदालतोंको छोड़ दिया है वे फिर वहाँ न जायें। उन्हें दूसरोंसे भी ऐसा ही करनेके लिए कहना चाहिए। इसके बाद श्री गांधीने असहयोग आन्दोलनमें अहिंसाके महत्वको विस्तारसे बताया। उन्होंने कहा यदि आपने कोई हिंसापूर्ण कार्य न किये तो सरकारको आपपर अपनी ताकत आजमानेका अवसर ही नहीं मिलेगा और सरकारके पास बहुत बड़ी शक्तिके होते हुए भी जीत आपकी ही होगी। जब लोग अहिंसा महत्वसे पूरी तरह प्रभावित हो जायेंगे केवल तभी मैं जनतासे कर देना बन्द करने तथा सैनिकोंसे अपने शस्त्र त्याग देनेके लिए कहूँगा। उन्होंने आगे कहा, मुझे खेद है कि शुक्रवारकी हड़तालके[१] दिन कुछ छात्रोंने आम सड़कोंपर खड़े होकर लोगोंके कार्योंमें बाधा डाली। मुझे इस बातका भी दुःख है कि कुछ छात्र कलकत्ता विश्वविद्यालयके सामने लेट गये और उन्होंने दूसरे छात्रोंको परीक्षा देनेके लिए नहीं जाने दिया। ऐसा नहीं करना चाहिए था। उन्हें अपने विरुद्ध किसीको कुछ कहनेका अवसर नहीं देना चाहिए। इसके बाद श्री गांधीने स्वराज्यकी लड़ाईमें चरखके महत्ववर प्रकाश डाला, और सबसे कहा कि वे चरखको अपनायें।

[अंग्रेजीसे]
अमृतबाजार पत्रिका, २–२–१९२१

 

१५३. पत्र : ड्यूक ऑफ कनॉटको[२]

[२ फरवरी, १९२१ के पूर्व]

महोदय,

श्रीमान्ने असहयोग, असहयोगियों और उनके तरीकोंके सम्बन्धमें एवं संयोगवश असहयोगके एक विनीत प्रणेताके रूपमें मेरे बारेमें बहुत-कुछ सुना होगा। मेरा खयाल है कि श्रीमान्‌को जो जानकारी दी गई है वह अवश्य ही एकपक्षीय रही होगी। आपके प्रति, अपने मित्रोंके प्रति और स्वयं अपने प्रति यह मेरा कर्त्तव्य है कि मैं आपके समक्ष उस असहयोगकी अपनी कल्पना प्रस्तुत करूँ जिसका अनुगमन केवल मैं ही नहीं, मेरे निकटतम साथी——जैसे श्री शौकत अली और मुहम्मद अली भी कर रहे हैं।

श्रीमान्के आगमनके अवसरपर श्रीमान्‌के स्वागतके बहिष्कार आन्दोलनमें मैं सक्रिय भाग ले रहा हूँ किन्तु वह मेरे लिए किसी हुआ था।

  1. २८ जनवरी, १९२१ को ड्यूक ऑफ कनाॅट कलकत्ता पहुँचे थे। उसी समय यह हड़ताल हुईं थी। ड्यूक आगमनका सम्पूर्ण बहिष्कार करनेके उद्देश्यसे नागरिकोंने उक्त हड़ताल की थी।
  2. यह यंग इंडिया और दूसरे पत्रोंमें प्रकाशित हुआ था। सबसे पहले इसका प्रकाशन २ फरवरी, १९२१ को अमृतबाजार पत्रिकामें हुआ था।